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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३६६ तत्त्वनिर्णयप्रासादउपरांतका आचार, रात्रिभोजन, शूद्रका अन्न, देवके आगे चढा नैवेद्य इन पूर्वोक्त वस्तुयोंको मरणांतमें भी न खाना । संतानोप्तत्तिकेवास्ते गृहवासमें स्त्रीसें संभोग करना न तु कामासक्त होके। चारों आर्यवेद विधिसें पढने, खेती, पशुपालपणा और सेवावृत्ति (नौकरी) येह नहीं करने। शुचिमान् ऐसे तैनें सत्य वचन बोलना, प्राणिकी रक्षा करनी, अन्य स्त्री और अन्य धन येह वर्जने, कपाय विषयको त्यागने, प्रायः क्षत्रिय और वैश्योंके घरमें तैनें भोजन न करना, आर्हत् ब्राह्मणों के घरमें भोजन करना तुझको योग्य है। अपनी ज्ञातिका जो मिथ्यात्ववासित होवे, और मांसाहारी होवे तिसके घरमें भी भोजन नही करणा। प्रायः आपही पकाके भोजन करना । कच्चे अन्नका भी दान नीचोंका न ग्रहण करणा, नगरमें भ्रमण करतां किसीका भी प्रायः स्पर्श न करना। उपवीत, स्वर्णमुद्रा और अंतरीय, इनको त्याग न करने. कारणांतरको वर्जके शिरके ऊपर उष्णीष धारण न करना। प्रायः सर्व मनुष्योंको धर्मोपदेश देना, व्रतारोपको वर्जके निग्रंथ गुरुकी आज्ञासें पंचदश १५ संस्कार गृहस्थोंको करने, तथा शांतिक, पौष्टिक, जिनप्रतिनाकी प्रतिष्ठादि करावने। निग्रंथकी आज्ञासें प्रत्याख्यान करना, और अन्यको करावना; सम्यक्त्वको दृढ धारण करना, मिथ्याशास्त्रकी श्रद्धा वर्जनी । अनार्य देशमें जाना नही, तीनों शुद्धियां करके शौच आचरण करना; हे वत्स ! तैनें पूर्वोक्त व्रतादेश जबतक संसारमें रहे तबतक पालना ॥ १५॥ इतिब्राह्मणव्रतादेशः॥ अथक्षत्रियव्रतादेशः॥ परमेष्टिमहामंत्रः स्मरणीयो निरंतरम् ॥ शक्रस्तवैस्त्रिकालं व वंदनीया जिनेश्वराः ॥१॥ मद्यं मांसं मधु तथा संधानोदुंबरादि च ॥ निशि भोजनमेतानि वर्जयेदतियत्नतः॥२॥ दुष्टनिग्रहयुद्धादिवर्जयित्वा वधोगिनाम्॥ न विधेयः स्थूलमृषावादस्त्यक्तव्य एव च ॥३॥ For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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