SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 440
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३३० तत्त्वनिर्णयप्रासादगर्भसें आठ मास व्यतीत हुए, सर्व दोहदोंके पूर्ण हुए, सांगोपांग गर्भके उत्पन्न हुए, तिसके शरीरमें पूर्णीभाव प्रमोदरूप स्तनोंमें दूधकी उत्पत्तिका सूचक, पुंसवन कर्म करे. । मूल, पुनर्वसु, पुष्य, हस्त, मृगशिर, श्रवण, येह नक्षत्र; और मंगल, गुरु, आदित्य, येह वार, पुंसवन कर्ममें संमत है. रिक्ता, दग्धा, क्रूरा, तीन दिनको स्पर्शनेवाली, अवम् (टूटी हुई,) षष्ठी, अष्टमी, द्वादशी, अमावास्या, ये तिथियां वर्जके; गंडांतकरके उपहत, और अशुभ नक्षत्रवर्जित, पूर्वोक्त वारनक्षत्रसहित दिनमें पतिको चंद्रमाके बल हुए, पुंसवनका आरंभ करे; सो ऐसें है.। पूर्वोक्त भेष, और खरूपवाला गुरु पतिके समीप हुए, अथवा न हुए, गर्भाधान कर्मके अनंतर, जो वस्त्रवेष, और केशवेष धारण करे हैं, तिसही वस्त्रवेष और केशवेषवाली गर्भवंतीको, रात्रिके चौथे प्रहरमें तारेसहित आकाश होवे तब मंगलगीतगानपूर्वक आभरणसहित अविधवा स्त्रीयोंकरके, अभ्यंग उद्वर्त्तन जलाभिषेकोंकरके स्नान करवावे.। तदपीछे प्रभात हुए नवीन वस्त्र गंधमाल्यभूषित गर्भवंतीको साक्षिणी करके, घरदेहरामें अर्हत्प्रतिमाको तिसका पति, वा तिसका देवर, वा तिसके कुलका पुरुष, वा गुरु, आप पंचामृतकरके बृहत्स्नात्रविधिसे स्नान करवावे. । तदपीछे सहस्त्रमूलीस्नात्र प्रतिमाको करे, पीछे तीर्थोदकस्नात्र करे. । पीछे सर्वस्नात्रोदकोंको सुवर्णरूप्यताम्रादि भाजनमें स्थापन करके, शुभासन ऊपर बैठी हुई साक्षीभूत करे हैं पतिदेवरादि कुलज जिसने, ऐसी गर्भवतीको, दक्षिणहस्तमें कुशा धारण करके, कुशाग्रबिंदुयोंकरके स्नात्रोदकसे गर्भवंतीके शिरस्तनउदरको सिंचन करता हुआ, इस वेदमंत्रको पढे.॥ “॥ॐ अहँ ।नमस्तीर्थकरनामकर्मप्रतिबंधसंप्राप्तसुरासुरेंद्रपूजायाहते।आत्मन् त्वमात्मायुःकर्मबंधप्राप्यं मनुष्यजन्मगर्भावासमवाप्नोषि। तद्भव जन्मजरामरणगर्भवासविच्छित्तये प्राप्तार्हद्धर्मः अर्हद्भक्तः सम्यक्त्वनिश्चलः कुलभूषणः। सुखेन तवजन्मास्तु। भवतु तव त्वन्मातापित्रोः कुलस्यान्यु For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy