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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendral www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २९८ तत्त्वनिर्णयप्रासाद ' कर है. । तथा 'प्रचोदया' प्रदीयमान विषका असाध्य निदान है इत्यादि ॥ अधीमहि ' अकारसें अजा मेषशृंगी ( मेषके शृंगसमान फलवाला वृक्ष) तिसके 'प्रचोदयात् ' दकारसें दल ( पत्र ) । भा १ । 'भगोंदेव' गोशब्दसें गेंहू सत् । भा १ । 'महि' मकारसें मधुलि । भा २ । ' सवितुः ' सकारखें सर्पिषा सह - घृत के साथ ' भर्गो' भशब्दसें भक्षण करे ' वरेण्यं ' कारसे बलवीर्य करे ' प्रचोद ' प्रसें प्रभंजन (वायु) तिसकों हरे, इत्यादि औषध विधियां भी इहां जाननीयां ॥ आर्यावृत्तम् ॥ चक्रे श्रीशुभतिलकोपाध्यायैः स्वमतिशिल्पकल्पनया ॥ व्याख्यानं गायत्र्याः क्रीडामात्रोपयोगमिदम् ॥ १ ॥ अनुष्टुप् ॥ तस्यायं स्तवकार्थस्तु परोपकृतिहेतवे ॥ कृतःपरोपकारिभिर्विजयानंदसूरिभिः ॥ १ ॥ ॥ इतिगायत्रीमंत्रव्याख्यास्तवकार्थः ॥ श्रीशुभतिलक उपाध्यायजी अपने करे गायत्रीव्याख्यान में कहते हैं कि, मैने येह पूर्वोक्त गायत्रीके जे अर्थ करे हैं, ते सर्व क्रीडामात्र हैं " क्रीडामात्रोपयोगमिदमितिवचनात् " इससे यह सिद्ध होता है कि, येह पूर्वोक्त सर्व अर्थ गायत्रीके सच्चे हैं, यह नही समझना किंतु सत्यार्थ तो वो है कि, जिस ऋषिने जिस अर्थके अभिप्रायसें गायत्रीमंत्र रचा है; परंतु तिस ऋषिके कथन करे अर्थकी परंपरायसे धारणा आजतक चली आइ होवे, और तैसें ही अर्थ भाष्यकारोंने लिखे होवें, यह किसीतरे भी सिद्ध नही होता है, सो अग्रिम स्तंभसें जान लेना. इत्यलम् ॥ इतिश्रीमद्विजयानंद सूरिविरचिते तत्त्वनिर्णयप्रासादे जैनाचार्य - बुद्धिवैभववर्णनो नामैकादशस्तंभ: ॥ ११ ॥ For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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