SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 40
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir इधर होना चाहिये. कभी ईश्वर जीवोंको कर्मनुसार फल देता है ऐसा माना जाय तो भी जब कामी पुरुषके व्यभिचारसें स्त्रीको पूर्वकर्मानुसार फल मिला तब वो फल ईश्वरने उसको दिया, और उस कामी पुरुषको व्यभिचार द्वारा वह फल मिला इसलिये यह व्यभिचारकी इच्छा ईश्वरने पैदा की शिवाय इसके उस स्त्रीको या उस पुरुषको पूर्वोक्त फल कैसे मिल शकता?" उस गृहस्थने कहा " महाराज ! ईश्वर तो साक्षी मात्र है." महाराजजीने कहा " हम भी निश्चयनयकी अपेक्षासें कहते हैं कि, आत्मा ( ईश्वर ) साक्षी मात्र है. उस गृहस्थने कहा “महाराज ! ऐसा है तब आपके और हमारे मतमें क्या तफावत है ?" महाराजजीने कहा “ तुम वस्तुका एक धर्म ग्रहण करके एकांतवादमें दूसरे धर्मोको स्वीकारते नहीं हो, हम वस्तु के सबही धर्म अगीकार करते हैं. परंतु कथनमें सर्व धर्म युगपत् कथन करने अशक्य होनेसें और सबधर्म एक दूसरेके साथ ऐसे मिले हुए हैं कि एक दुसरेसें सर्वथा छुटे नहीं पड सकते हैं. इस सबबसें जब हमको एक या ज्यादा धर्मके संबंध व्याख्यान करना पडताहै तब कहते हैं कि "स्यात् अस्ति इत्यादि " अर्थात् कथंचित (अमुक अपेक्षासें वस्तु है, कथंचित् नही है, ) इत्यादि." ___ इस संभाषणसें वह गृहस्थ बहुतही संतुष्ट होकर महाराजजीके गुणानुवाद करता करता स्वस्थानमें गया. जैसे साधारण बातचीतमें ऐसें व्याख्यानमें भी स्याद्वाद मार्गकी शैली महाराजजीके शब्द शब्दमें व्यापीहुई मालूम पडतीथी. "पढ्दर्शन जिन अंग भणीजे" यह आनंदधनजी महाराजका वाक्य सत्य है. यह बात उनके साथ मात्र पांच मिनीट बात करनेसें मालूम होतीथी. कोई अनजान गृहस्थ महाराजजी पास शंकाके पूछनेको आते तो उनकी शंकाका समाधान प्रश्न पूछनेके पहिलेही प्रायः बातचितमें होजाताथा. जैन समुदायके उपर महाराजजीश्रीने जो जो उपकार किये हैं, वे सर्व अवर्णनीय हैं. धर्म संबंधी ज्ञान जैनोंमें बहुत कचा होगयाहै यह तो जाहिर बात है. कोई युवान धर्मज्ञान प्राप्त करनेको चाहताथा तो उसको साधन मिलते नहिं थे. साधन प्राप्त होते तो समझने में मुस्केली पडतीथी. यह बडा अंतराय जो जज्ञासु पुरुषके मार्ग में था सो इन्होनें दूर किया. जैन तत्वादर्श जैसा अमूल्य ग्रंथ हिंदी सरल भाषामें लिखकर जैनोंके तत्व समझनेमें आवे इसतरह लोक समक्ष रजु किया यह कुच्छ कम उपकारका काम नहीं है. कितनेक अनसमजु लोकोंका मत है कि ज्ञानको भंडारमेंजरखना. ज्ञान पंचमी जैसे दिनों में पुजामें रखना, परंतु जिनेश्वर भगवानने पुकाके उपदेश किया है कि आत्माका ज्ञान गुण बहार आवेगा तबही सिद्धिपदकी प्राप्ति होगी. ज्ञान अभ्यासके लीये है. नाहिके संग्रहके लिये, ज्ञानको गुप्त रखनेसे. लोगोंको ज्ञानके साधन शक्तिके होये भी नहीं दे से ज्ञानावर्णीय कर्म बंधाता है, यह जैन सिद्धांत है और यह सिद्धांत के अनुसार महाराजजीश्रीने जगा जगा पुस्तकालय बनवाके पुम्तकद्वारा और उपदेशद्वार ज्ञानका फेलाव किया है और यह पुस्तक भी उसी ज्ञानका फल है. हम सब इस भाग्यवान महा पुरुषके उपकारनीचे दबेहुए For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy