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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir (२१) ___यह महात्मामें कइ गुण ऐसे थे जो वडे पुरुषों में भी एकही साथ बहु कठिनतासे पाये जाते हैं. प्रायः आंतरीय गुणोंके अनुसार बाहिरकी आकृति होती है. दृढ विचारवाले पुरुषकी दृढता इत्यादि उनके चेहरेपर जाहिर होती है. कामी पुरुषका काम उसकी आंख और गालके उपर दृष्टिगोचर होता है. हठपणा जडबासें जाहिर होता है. आकृति देखकर गुणअवगुण कहना यह प्राचीन अष्टांगगोचर होता है. आधुनीक समयमें भी अमेरिकादि देशोम यत्किंचित् यह विद्या जाननेवाले हैं। इन महात्माका जिसने दर्शन नहि किया है वह उनकी तस्वीर देखकर उनकी भव्यता देख शकता है, परंतु पुण्योदय के प्रभावसें जिनोंने उनकी चरणसेवा की है वे तो पांच महाव्रत पालनेकी निशानी महाराज श्रीके शरीरपर देख शकते थे. पांच मह व्रत हरेक मुनी पाले ऐसा ख्याल करें, परंतु इन महामुनिराजके ज्ञान, दर्शन, चारित्रकी छाप उनकी चालमें, बाणीमें, वर्तावमें, व्याख्यानमें, साधारण वार्तालापमें, टुकमें हरेक प्रसंगपर जाहिर होतीथी, हजारों साधुओंके बीचमेसें उक्त मुनिराज एकदम अनजान आदमीको भी नजर आ जाते थे ऐसी उन की भव्य आकृति थी. आज काल हम देखते हैं के किसी खास धर्मगुरुकेपास व्याख्यान श्रवण करनेको अन्य धर्मवाले प्रायः करके नहि जाते हैं. विशेष करके वेदमतानुयायी ब्राह्मणोंने जैनोंकी तरफ अपना द्वेष जगे जगे जाहिर किया है. जैन यानि नास्तिक - पाखंडी. फिर उस धर्मके साधु और उपदेशक तो दूरसेंही नमस्कार करने योग्य माने उपमें क्या आश्चर्य ? परंतु मुनि श्रीआत्मारामजीके संबंधमें अन्य मतवालोंका वर्तन बहुतही प्रशंसनीय था. पंजाबमें महाराजश्रीने बहुत काल व्यतीत किया था, और उसके व्याख्यानमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सब वर्णके लोग आते थे. आते थे इतनाही नहीं परंतु उनको पूज्य गुरु समझते थे. उनमें अन्यमतावलंबीयोंको सत्य मार्ग बतानेकी शक्ति भी अद्भुत थी. किसी को बुरा नहीं मनाकर जीज्ञासुके संशयको दूर करते थे. एक समय अंबाला शहरमें एक वेदमतानुयायी गृहस्थ महाराजश्रीका नाम सुनकर आकर नम्रतासे नमस्कार करके बैठा. थोडी देरके बाद उसने पूछा " महाराज ! हमने सुना है कि आप जैनी लोग इस जगत्का कोई कर्ता नहीं है ऐसा मानते हैं यह बात सच है क्या ?” महारानजीने कहा “ जगत्कर्ता ईस शब्दका अर्थ समझनेमें लोगोंकी भूल होती है. जिससे जैनधर्म संबंधी खोटा अपवाद प्रचलित हुआ है. मैं तुमको पूछता हूं कि तुम खुद जगत्कर्ता ईश्वरको मानते हों तो कहो यह ईश्वर कौनसी जगा रहता है ? उस गृहस्थने कहा " महाराज ! ईश्वः सबही जगापर है। सब जीवोंमें ईश्वर हैं. कोई जगा बिनाईश्वरके नहीं है." महाराजजीने कहा, "ठीक है. इम इसको आत्मतत्त्व कहते हैं, वह हरेक जीववाली वस्तुमें है यह आत्मतत्त्व कर्मानुसार शरीर रचता है, तो इस आत्मतत्वको अमुक अपेक्षासें जगत्वा कहनेमें आवे तो हमको कुच्छ उजर नहि है. परंतु एक बात जाननी जरूर है के यदि ईश्वरको सामान्य लोकोके माने मुजिव जगत्कर्ता माना जायतो कामी पुरुष व्यभिचार करता है तो उनको मेरनेवाला For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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