SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 287
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पञ्चस्तम्भः । कर्मानुभावनिम्मित नै का कृतिजीवजातिगहनस्य ॥ लोकस्यास्य न पर्यवसानं नैवादिभावश्च ॥ ३६ ॥ व्याख्या- कम के अनुभावसमर्थसें जीवोंकी अनेक आकृति बन रहीहै, तिस अनेक कृतीसंयुक्त जीवोंकी जाति, योनियोंकरके गहन इसलोकका कदापि पर्यवसान (छेहडा) नही है, और आदिपणाभी नही है. ॥३६॥ तस्मादनाद्यनिधनं व्यसनोरुभीमं जन्मार दोषदृढनेम्यतिरागतुम्व्यम् ॥ घोरं स्वकर्मपवनेरितलोकचक्रं भ्राम्यत्यनारतभिदं हि किमीश्वरेण ॥ ३७ ॥ इति श्रीमद्धरिभद्रसूरिकृत लोकतत्त्वनिर्णयः ॥ व्याख्या - तिसवास्ते अनादि, अनंत और कष्टोंकरके भयजनक जन्मरूप अरे ! दोषरूप दृढ चक्रकी नेमीधारा है, रागरूप तुंब घोर नाभी हैं, अपने २ कर्मरूप पवनका प्रेरा हुआ लोकचक्र निरंतर भ्रमण करता है, तो फेर ईश्वर कर्त्ता की कल्पना करनेसें क्या लाभ है ? कुछभी नही है. निःकेवल अज्ञानियोंके अज्ञानकी लीला है, जो कि, जगत्का कर्त्ता ईश्वर मानना ॥ ३७ ॥ इति श्रीमहरिभद्रसूरिकृतलोकतत्त्वनिर्णयस्य बालावबोधः ॥ श्रीमत्तपोगणेशेन विजयानंदसूरिणा ॥ कृतोबालावबोधोयं परोपकृतिहेतवे ॥ १ ॥ इंदुबाणांकचन्द्राब्दे मधुमासे सिते दिले ॥ १७७ For Private And Personal त्रयोदश्यां तिथौ बुधघले पूर्तिमगात्तथा ॥ २ ॥ सर्व श्री संघसें हम नम्रतापूर्वक विनती करते हैं कि, महादेवस्तोत्र, अयोगव्यवच्छेद, और लोकतत्त्वनिर्णय नामक ग्रंथोंकी टीका तो हमकों मिली नही है, केवल मूलमात्र पुस्तक मिले हैं, सोभी प्रायः अशुद्धसें है, परंतु कितनेक मुनियोंकी प्रार्थनासें यह बालावबोधरूप किंचिन्मात्र भाषा लिखी है; इनमें ग्रंथकारके अभिप्रायसें जो कुछ अन्यथा लिखा होवे, वा जिनाज्ञासें विरुद्ध लिखा होवे तो, मिथ्यादुष्कृत हमकों होवे; २३
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy