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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १७६ तत्त्वनिर्णयप्रासादअद्धाचक्रमनीशं ज्योतिश्चक्रं च जीवचक्रं च ॥ नित्यं पुनंति लोकानुभावकर्मानुभावान्याम् ॥ ३२॥ व्याख्या-अद्धाचक्र (कालचक्र) जो लोकमें वर्त्तता है, सो ईश्वरकृत नहीं है, ऐसेंही ज्योतिश्चक्र और जीवचक्र जानने; ये तीनों चक्र नित्य सदाही लोककी अनादि मर्यादाकरके, और जीवोंके शुभाशुभ कर्मोके अनुभावसामर्थ्यकरके, प्रवर्त्त रहे है, नतु ईश्वरकी प्रेरणासें. ॥३२॥ चंद्रादित्यसमुद्रास्त्रिष्वपि लोकेषु नातिवर्त्तते॥ प्रकृतिप्रमाणमात्मायमित्युवाचोत्तमज्ञाता ॥ ३३॥ व्याख्या-चंद्र, सूर्य, समुद्र, ये, तीनो लोकमें जो अपनी मर्यादाका उल्लंघन नहीं करते है, यह भी अनादि लोकस्थिति, और जीवोंके कर्मोंहीके प्रभावसे है. और प्रकृति अर्थात् देहप्रमाणव्यापक यह आत्मा है, ऐसें उत्तमज्ञानवान् कहते भए हैं ॥ ३३ ॥ सर्वाः पृथिव्यश्च समुद्रशैलाः सस्वर्गसिद्धालयमंतरिक्षम् ॥ अश्वत्रिमः शास्वत एष लोक अतो बहिर्यत्तदलौकिकं तु॥३४॥ व्याख्या-सर्व पृथिवी, समुद्र, पर्वत, स्वर्ग (देवलोक) और सिद्धालय मुक्ताकाशचिदाकाशसहित अंतरिक्ष आकाश, ये सर्व, तिनमें कितनेक तो स्वरूपसे अनादि है, और कितनेक प्रवाहसें अनादि है, इसवास्ते ईश्वरकृत नहीं है; किंतु यह लोक शाश्वत है, और इस लोकसें जो बाहिर है, सो अलोक है, निःकेवल आकाशमात्र है. ॥ ३४ ॥ प्रकृतीश्वरौ विधानं कालः सृष्टिविधिश्च दैवं च ॥ इति नामधनो लोकः स्वकर्मतः संसरत्यवशः ॥ ३५॥ व्याख्या-प्रकृति, ईश्वर, विधान, काल, सृष्टि, विधि, दैव ये सर्व लोकके नाम है; इसलोकमें संसारी जीव अपने २ कर्मोकरके भ्रमण करता हैं, नतु स्ववशसें. ॥३५॥ For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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