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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तत्त्वनिर्णप्रासादलोका नांतु विद्ध्यर्थं मुखबाहरुपादतः॥ ब्राह्मणं क्षत्रियं वैश्यं शूद्रं च निरवर्तयत् ॥६७।। व्याख्या-ब्रह्मवादी कहते हैं कि-इदं यह जगत् तममें स्थित लीन था, प्रलयकालमें सूक्ष्मरूपकरके प्रकृतिमें लीन था, प्रकृतिभी ब्रह्मात्म. करके अव्याकृतथी अर्थात् अलग नहीं थी, इसवास्तेही अप्रज्ञातं प्रत्यक्ष नहीं था, अलक्षणम् अनुमानका विषयभी नहीं था, अप्रतय॑म् तर्कयितुमशक्यम् तर्ककरनेके योग्य नहीं था, वाचक स्थूलशब्दके अभावसें, इसवास्तेही अविज्ञेय था, अर्थापत्तिकेभी अगोचर था, इसवास्ते सर्व ओरसे सुप्तकीतरें स्वकार्य करणेमें असमर्थ था. तदनंतर क्या होता भया ? सो कहे हैं; प्रलयके अवसानानंतर स्वयंभू परमात्मा अव्यक्त बाह्यकरण अगोचर इदं यह महाभूत आकाशादिक आदिशब्दसें महदादिकांको प्रथम सूक्ष्मरूपकरके रहेको स्थलरूपकरके प्रकाश करता भया, कैसा है स्वयंभू परमात्मा ? वृत्तौजाः सृष्टि रचनेका सामर्थ्य जिसका अव्याहत है, और जो तमोनुदः प्रकृतिका प्रेरक है, सो स्वयंभू परमात्मा भूलोकोंकी वृद्धिवास्ते मुख, बाहु, ऊरु और पगोंसें ब्राह्मण १, क्षत्रिय २, वैश्य ३, और शूद्रोंको यथाक्रम निर्मित करता भया. ॥ ६५ ॥ ६६ ॥ ६७ ॥ “सांख्याश्चाहुः” ॥ पञ्चविधमहाभूतं नानाविधदेहनामसंस्थानम् ॥ अव्यक्तसमुत्थानं जगदेतत् केचिदिच्छन्ति ॥१८॥ सर्वगतं सामान्यं सर्वेषामादिकारणं नित्यम् ॥ सुक्ष्ममलिङमचेतनमक्रियमेकं प्रधानाख्यम् ॥ ६९॥ प्रकृतेर्महांस्ततोहंकारस्तस्माद्गणश्च षोडशकः॥ तस्मादपि षोडशकात् पञ्चभ्यः पञ्चभूतानि ॥७॥ मूलप्रकृतिरविकृतिर्महदाद्याः प्रकृतिविकृतयः पञ्च ॥ षोडशकश्च विकारोन प्रकृतिन विकृतिःपुरुषः॥७१॥ गुणलक्षणोनयस्मात्कार्यकारणलक्षणोपिनो यस्मात् ॥ तस्मादन्यः पुरुषःफलभोक्ता चेत्यकर्ता च ॥७२॥ For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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