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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पञ्चमस्तम्भः। १५५ कालही जागता है, इसवास्ते कालही उल्लंघन करना दुष्कर है ॥ ६१ ॥ “ईश्वरकारणिकाश्चाहुः॥" प्रकृतीनां यथा राजा रक्षार्थमिह चोद्यतः तथा विश्वस्य विश्वात्मा स जागर्ति महेश्वरः॥६२॥ अन्यो जंतुरनीशो यमात्मनः सुखदुःखयोः ॥ ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा श्वभ्रमेव च ॥६३॥ सूक्ष्मोचिन्त्योविकरणगणः सर्ववित् सर्वकर्ता योगाभ्यासादमलिनधियां योगिनां ध्यानगम्यः॥ चन्द्रार्काग्निक्षितिजलमरुत्दीक्षिताकाशमूर्ति ध्येयो नित्यं शमसुखरतरीश्वरः सिद्धिकामैः॥६४॥ व्याख्या-ईश्वरको कारण माननेवाले वादी कहते हैं कि-जैसें प्रजाकी रक्षावास्ते राजा उद्यत है, तैसेही सर्वजगत्की रक्षावास्ते विश्वात्मा ईश्वर जागता है, अर्थात् सर्वजगत्का बंदोबस्त महेश्वर करता है; क्योंकि, अन्यजीव सर्व अपने आपको कर्मफल सुखदुःखोंको देने सामर्थ्य नहीं है, किंतु, ईश्वरकी प्रेरणासेंही जीव स्वर्ग वा नरकको जाताहै; इसवास्ते शमरूप सुखोंमें रक्त सिद्धिके कामी पुरुषोंको निरंतर ईश्वरकाही ध्यान करना योग्य है. ईश्वर भगवान् कैसा है ? सूक्ष्म है, अचिंत्य जिसका कोइभी चितवन नहीं करसक्ता है, इंद्रियोंके समूहसे रहित है, सर्वज्ञ है, सर्वका कर्ता है, योगाभ्याससे निर्मल बुद्धिवाले योगियोंके ध्यानसे जानाजाता है, चंद्र, सूर्य, अग्नि, पृथिवी, जल, पवन, दीक्षित आकाशवत् मूर्ति है जिसकी, अर्थात् सर्व व्यापक है ॥ ६२ ॥ ६३ ॥ ६४ ॥ " ब्रह्मवादिनश्चाङः॥ आसिदिदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम् ॥ अप्रतळमविज्ञेयं प्रसुप्तमिव सर्वतः ॥६५॥ तत:स्वयंभूर्भगवानव्यक्तो व्यञ्जयन्निदम्॥ महाभूतादिवृत्तौजा: प्रादुरासीत्तमोनुदः ॥६६॥ For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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