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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तृतीयस्तम्भः। भावार्थ-माध्यस्थपणेकों धारण करके, जे पुरुष अपने आपकों परीक्षक मानते हैं कि, हम पक्षपातरहित सच्चे परीक्षक हैं; परंतु काचके टुकडेकों, और चंद्रकांतादि मणियोंकों मोलमें, वा गुणोंमें समान मानते हैं, वे परीक्षक नहीं हैं, किंतु वेभी मत्सरि पुरुषकी मुद्रावालेही हैं. ऐसेंही जिनोंने माध्यस्थपणा और परीक्षक अपने आपको माने हैं, फेर काम, क्रोध, मान, माया, लोभ, हिंसा, मैथुनादिरहित सर्वज्ञ वीतरागकों, और पूर्वोक्त कामादिसहित अज्ञानी सरागीको एकसमान मानते हैं, इसवास्ते वे परीक्षक नहीं, किंतु वेभि मत्सरी ही हैं ॥ २७ ॥ अथ स्तुतिकार प्रतिवादीयोंसमक्ष अवघोषणा करते हैं. इमां समक्ष प्रतिपक्षसाक्षिणामुदारघोषामवघोषणां ब्रुवे॥ नवीतरागात्परमस्ति दैवतं न चाप्यनेकान्तमृते नयस्थितिः ॥२८॥ व्याख्या-मैं श्री हेमचंद्रसूरी (प्रतिपक्षसाक्षिणां) प्रतिपक्षसाक्षियोंके ( समक्षं) समक्ष-प्रत्यक्ष (इमां) यह जो आगे कहेंगे तिस (उदारघोषाम् ) मधुर शब्दोंवाली (अवघोषणाम्) अवघोषणा, लोकोंके जनावने वास्ते उच्च शब्द करके जो बोलना तिसका नाम अवघोषणा कहते हैं, तिस अवघोषणाकों (ब्रुवे) बोलता हूं-करता हूं, सोही दिखाते हैं, (वीतरागात्) वीतरागसें (परं) परे-कोई (दैवतं ) सत्यधर्मका आदि उपदेष्टा (न) नहीं ( अस्ति ) है, (च) और (अनेकांतं-ऋते) अनेकांत अर्थात् स्याद्वादविना कोइ ( नयस्थितिः-अपि) नयस्थितिभी (न) नहीं है; अर्थात् स्याद्वादके विना पदार्थके स्वरूपके कथन करनेरूप जो नयस्थिति है सोभी नहीं है. स्यात् पदके चिन्हविना किसीभी नित्यानित्यादिनयके कथनकी सिद्धि न होनेसें ॥ २८ ॥ अथ स्तुतिकार अपने आपको अपक्षपाती सिद्ध करते हैं. न श्रद्धयैव त्वयि पक्षपातो न द्वेषमात्रादरुचिः परेषु॥ यथावदाप्तत्वपरिक्षया तु त्वामेव वीर प्रभुमाश्रिताः स्मः ॥२९॥ व्याख्या हे वीर! (श्रद्धया-एव) श्रद्धा मात्र करकेही, अर्थात् श्रीमहावीरके विना अन्य किसी परवादीके मतके देवकों अपना प्रभु ईश्वर For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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