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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir द्वितीयस्तम्भः। ७१ और उस जलके पीनेकी भी इच्छा करी. उस समय स्नान करती हुई कृत्तिकाभी छह सूर्योके समान उस जलको देखती भई. तब पार्वती कमलके पत्तेपर स्थित हुए उस जलको ग्रहण करके आनंदसे बोली कि, कमलपत्रपर स्थित हुए इस जलको मैं देखती हूं. ऐसे पार्वतीके वचनको सुन कर कृत्तिका पार्वतीसे बोली कि, हे शुभानने! इस जलसे जो तुझारे गर्भ रह जावे तो वह हमारे नामसे प्रसिद्ध हमाराही पुत्र संसारमें प्रसिद्ध होवे ऐसी प्रतिज्ञा करे तो, हम इस जलको देवें. यह सुनकर पार्वतीजी बोली कि, मेरे अवयवोंसे युक्त हुआ बालक तुह्मारा पुत्र होवेगा? जब पार्वतीने यह वचन कहा, तब कृत्तिका बोली कि, हम इसके उत्तम २ अंगोंका विधान कर देवेंगी. यह बात सुनकर पार्वतीजीने कहा कि, अच्छा इसी प्रकार होजागया. तब कृत्तिका प्रसन्न होकर उस जलको पार्वतीके निमित्त देती भई. तब पार्वतीने भी वह जल पीलिया. इसके अनंतर उस जलका गर्भ पार्वतीकी दाहिनी कोखको फाडकर बाहर निकला. और उसमेंसे सब लोकोको प्रकाशित करनेवाला अद्भुत बालक निकला, सूर्यके समान तेजस्वी, कंचनके समान देदीप्य, शक्ति और शूलको ग्रहण किये हुए, छ मुखवाला, वह अद्भुत बालक होता भया. सुवर्णकीसी कांतिवाला यह बालक दुष्ट दैत्योंको मारनेवाला होता भया. इस प्रकारसे खामी कार्तिककी उत्पत्ति हुई है. इति श्रीमत्स्यपुराणभाषाटीकायांसप्तपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः॥१५७॥ पुनरपि मत्स्यपुराणे चतुर्नवत्यधिकशततमेऽध्याये यथामहादेवस्य शापेन त्यक्त्वा देहं स्वयं तथा ॥ ऋषयश्च समुद्रूताश्च्युते शुक्रे महात्मनः ॥ ६॥ देवानां मातरो दृष्ट्वा देवपल्यस्तथैव च ॥ स्कन्नं शुक्र महाराज! ब्रह्मणः परमेष्ठिनः ॥ ७ ॥ तज्जुहाव ततो ब्रह्मा ततो जाता हुताशनात् ॥ . ततो जातो महातेजा भृगुश्च तपसां निधिः ॥ ८॥ For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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