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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तत्वनिणर्यप्रासादवाली! तुझको सब देवता लोगभी शिरसे प्रणाम करते हैं. हे जननी! तुम श्वेतकेश और बडेमुखवाले सिंहपर सवारीकरके अपनी निर्मलशक्तिसे जब असुरोंको मारती हो तब संसार तुमको चंडिका कहता है, तुम ही शुंभनिशुंभको मारती और भक्तजनोंके मनोरथोंको सिद्ध करती हो. हे देवि! आकाशमें वायुके मार्गमें जलती हुई अग्निमें और पृथ्वीतलमें जो तेरा रूप है उसको मैं नमस्कार करता हूं, और ललितरंगोंवाले समुद्र, अग्नि और हजारों सर्प यह सब तेरे प्रभावसे मुझको भय नहीं देसक्ते हैं, मैं आपके चरणोंके आश्रय होगया हूं, अब किसी फलकी इच्छा नहीं करता हूं. हे देवि! मुझपर शांत होकर कृपा करो, मैं आपको प्रणाम करता हूं. सूतजी कहते हैं जब वीरभद्रने इस प्रकारसे स्तुति करी तब प्रसन्न होकर पार्वतीजी अपने पति शिवजीके मंदिरमें प्रवेश करती भईं. फिर द्वारपर खडा हुआ वीरभद्र शिवजीके दर्शन करनेकेलिये आये हुए देवताओंको अपने २ घरोंको भेजता भया; यह कहने लगा, हे देवताओ ! अब दर्शन करनेका अवसर नहीं है, शिवजी पार्वतीकेसंग रमण कर रहे हैं. ऐसे वचनोंको सुनकर देवता स्थानोंको चलेगये. जब हजार वर्ष व्यतीत होचुके तब देवता शीघ्रताकरके शिवजीके समाचार लेनेकेनिमित्त अग्निदेवताको भेजते भये. अग्नि तोतेका रूप धारण करके स्थानके किसी छिद्रके द्वारा स्थानमें प्रवेश करके पार्वतीकेसंग रमण करते हुए महादेवजीको देखता भया. तब कुछेक क्रोध करके महादेवजी उस तोतेसे बोले कि, तेरा किया हुआ यह विघ्न है इस लिये यह विघ्न तुझीमें प्राप्त होगा. ऐसा कहा हुआ अग्नि अंजली बांधकर महादेवजीके वीर्यको पीता भया. फिर उस वीर्यसे तृप्त हुआ अग्नि देवताओंको तृप्त करता भया. उस समय वह शिवजीका वीर्य उन देवताओंके उदरको फाडकर बहार निकलता भया, और शिवजीके आश्रमके समीप प्राप्त होता भया. वहाँ एक सरोवर " बनगया. बडा, स्वच्छ और बहुत योजन विस्तृत, सुवर्णकीसी कांतिवाला, फूले हुए कमलोंसे शोभित उस सरोवरको सुनकर पार्वतीदेवी सखियोंसे युक्त हो उसके जलमें क्रीडा करती हुई तीरपर स्थित होगए, For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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