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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथम खण्ड रणथम्भौर का राणा हम्मीरदेव, जैन विद्वानों द्वारा रचित 'हमीर महाकाव्य', 'हम्मीर रासो' जैसे जैन काव्यों का नायक है। 14वीं सदी के उत्तरार्ध में साहजीजा बघेरवाल ने चित्तौड़ के अद्वितीय कीर्ति स्तम्भ (जैन जयस्तम्भ) का जीर्णोद्धार कराया था। कुछ विद्वानों का मत है कि यह स्तम्भ साहजीजा ने ही बनवाया था। यह स्तम्भ पत्थर से निर्मित है और इसमें सात खाने (मंजिलें) हैं। कहा जाता है कि इसी से प्रेरणा लेकर लगभग 100 वर्ष पश्चात् राणाकुम्भा ने अपना जयस्तम्भ बनवाया था। राणा के अनेक राजपुरुष जैन थे। महाराणा कुम्भा के समय की सर्वश्रेष्ठ कला उपलब्धि रणकपुर में आदिनाथ का मन्दिर है, जिसमें 1444 स्तम्भ, 44 मोड़, 24 मण्डप और 54 देवकुलिकायें हैं। इसके बनाने में 65 वर्ष लगे। इसके निर्माता राणा कुम्भा के कृपापात्र सेठ धन्नाशाह पोरवाल थे, जिन्होंने 1433 में महाराणा से ही इसका शिलान्यास कराया था। राणा ने तब 22 लाख रुपये दान में दिये थे। लगभग इसी समय मुण्डासा (राजस्थान) के राव शिवसिंह के राज्यश्रेष्ठी शाह जीवराज पापड़ीवाल ने अनेक प्रतिष्ठायें कराकर लाखों की संख्या में जैन प्रतिमाएं सर्वत्र भेजी थीं। राणासांगा के पुत्र रत्न सिंह के मंत्री कर्माशाह ने, जिन्हें एक शिलालेख में- श्रीरत्नसिंहराज्ये राज्यव्यापारभार-धौरेय' कहा गया है, शत्रुञ्जय का जीर्णोद्धार कराया था। मेवाड़ के इतिहास में आशाशाह और उसकी वीर माता का नाम अमर हो गया है। महाराणा रत्नसिंह की मृत्यु के बाद उसका छोटा भाई विक्रमाजीत गद्दी पर बैठा, किन्तु वह अयोग्य था और उसका छोटा भाई उदयसिंह नन्हा बालक था। अत: सरदारों ने विक्रमाजीत को गद्दी से उतारकर दासीपुत्र बनवीर को राणा बना दिया। बनवीर ने विक्रमाजीत की हत्या कर जब उदयसिंह की हत्या करनी चाही तो पन्ना धाय अपने पुत्र का बलिदान देकर उदयसिंह को बाहर ले आयी। पन्ना आश्रय की खोज में अनेक सामन्त-सरदारों के पास भटकी पर अत्याचारी बनवीर के भय से कोई तैयार नहीं हआ। अन्ततः वह कम्भलमेर पहंची जहाँ का दर्गपाल आशाशाह (जैन) था। आशाशाह भी जब अपनी असमर्थता जाहिर करने लगा तो उसकी वीर माता कुपित होकर भूखी सिंहनी की भाँति आशाशाह का प्राणान्त करने उस पर झपटी और कहा -'तू कैसा पुत्र है जो विपत्ति में किसी के काम नहीं आता, तुझे जीने का अधिकार नहीं।' आशाशाह गद्गद होकर वीर जननी के चरणों में गिर पड़ा। आशाशाह ने कुमार को अपना भतीजा कहकर प्रसिद्ध किया। कुछ समय बाद अन्य सामन्तों की सहायता से उदयसिंह ने चित्तौड़ का सिंहासन प्राप्त कर लिया। मण्डौर के राव रिधमल तथा राव जोधा का दीवान बच्छराज बड़ा चतुर, साहसी और महत्त्वाकांक्षी था। 1488 ई0 में बीकानेर के संस्थापक राव बीका का भी यह दीवान रहा। बच्छराज ने जैनधर्म की प्रभावना के अनेक कार्य किये थे। बच्छराज के वंशज ही बच्छावत कहलाये। बच्छराज के पुत्र करमसिंह, वरसिंह, पौत्र नगराज, प्रपौत्र संग्राम आदि बीका के उत्तराधिकारियों के दीवान रहे। मारवाड़ के मोहनोत भण्डारी आदि कई प्रसिद्ध जैन वंशों का उदय इसी समय हुआ और उन्होंने राज्य के प्रतिष्ठित पदों पर कार्य करके उसके उत्कर्ष में भारी योगदान दिया। मध्यकाल में ही विजयपुर राज्य के राजाओं का कुलधर्म हिन्दू था पर प्रजा का बहुभाग जैन था। बुक्काराय प्रथम (1365-1377 ई0) के समक्ष जब भव्यों (जैनों) व भक्तों (वैष्णवों) में हुए संघर्ष को लाया गया तो उन्होंने सभी प्रमुखों को एकत्र करके जैनियों का हाथ वैष्णवों के हाथ में दिया और घोषणा की For Private And Personal Use Only
SR No.020788
Book TitleSwatantrata Sangram Me Jain
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKapurchand Jain, Jyoti Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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