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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्वतंत्रता संग्राम में जैन भाई धनदराज, भतीजे पुंजराज आदि का तत्कालीन जैन धार्मिक व्यक्तियों में उल्लेख आचार्य श्रुतकीर्ति ने अपने 'धर्मपरीक्षा' नामक ग्रन्थ में किया है। आगरा के निकट चन्द्रवाड़ (चन्द्रपाठ) को चन्द्रपाल चौहान ने अपनी राजधानी बनाया था। इसके राज्य में रायबड्डिय, रपरी, हथिकन्त, शौरीपुर, आगरा आदि कई अन्य नगर या दुर्ग थे। चन्द्रपाल स्वयं जैनी था और उसका दीवान रामसिंह हारुल भी जैन था। चन्द्रपाल के उत्तराधिकारी भरतपाल→अभयपाल जाहड़ का प्रधानमंत्री अमृतपाल था, जो जिनभक्त, सप्त व्यसन विरक्त, दयालु और परोपकारी था। अमृतपाल का पुत्र साहु सोड, उसका पुत्र रत्नपाल (रल्हण) राज्य के नगरसेठ थे। रत्नपाल का अनुज कृष्णादित्य (कण्ह) प्रधानमंत्री एवं सेनापति था। दिल्ली के गुलाम सुल्तानों के विरुद्ध इस जैन वीर ने कई सफल युद्ध किये थे, अनेक जिन मन्दिरों का निर्माण कराया था व कवि लक्ष्मण (लाख) से अपभ्रंश भाषा में 'अणव्रत रत्नप्रदीप' नामक धर्मग्रन्थ की रचना 1256 ई0 में करायी थी। यह वंश अनेक वर्षों तक राज्यमान्य और राजमन्त्रियों का वंश रहा। कहा जाता है कि चन्द्रवाड़ में 51 जैन प्रतिष्ठायें हुई थीं। इटावा (वर्तमान मैनपुरी) जिले के करहल नगर में भी चौहान सामन्त राजा भोजराज का राज्य था, जिसके मंत्री यदुवंशी अमरसिंह जैनधर्म के पालक थे। उन्होंने 1414 ई0 में वहाँ रत्नमयी जिनबिम्ब का निर्माण कराकर विशाल प्रतिष्ठा महोत्सव कराया था। फीरोज तुगलक के शासन के अन्तिम वर्षों में उद्धरणदेव तोमर ने ग्वालियर पर अधिकार करके अपना राज्य स्थापित किया था। उसके प्रतापी पुत्र वीरमदेव या वीरसिंह तोमर (1395-1422) ने राज्य को सुसंगठित करके स्वतंत्र और शक्तिशाली बनाया। बाद में गणपति देव, डूंगरसिंह, कीर्तिसिंह या करणसिंह, मानसिंह (1479-1518 ई0) और विक्रमादित्य क्रमशः राजा हुए। वीरमदेव के महामात्य जैसवाल कुलभूषण जैनधर्मानुयायी कुशराज थे, जिन्होंने ग्वालियर में चन्द्रप्रभु जिनेन्द्र का भव्य मन्दिर बनवाया था। इन्हीं ने पद्मनाभ कायस्थ से 'यशोधरचरित्र' अपरनाम 'दयासुन्दर विधान' नामक सुन्दर काव्य की रचना करवायी थी। ग्वालियर में विद्यमान विशालकाय जिन प्रतिमाओं के निर्माण का श्रेय डूंगरसिंह व कीर्तिसिंह तोमर राजाओं को जाता है। आदिनाथ की प्रतिमा बावनगजा कहलाती है, जो लगभग 50 फीट ऊँची है। लगभग 33 वर्ष इनके निर्माण में लगे। संघपति काला ने डूंगरसिंह के राज्य (1440 ई0) में स्वगुरु भट्टारक यश:कीर्तिदेव के उपदेश से भ0 आदिनाथ की प्रतिष्ठा प्रतिष्ठाचार्य पं0 रइधू से करायी थी। रइधू महान् साहित्यकार और अपभ्रंश के लगभग 30 ग्रंथों के रचयिता थे। राजस्थान में मेवाड़ के प्रसिद्ध नगर चित्तौड़ के शासक तेजसिंह (1206 ई0) की रानी जयतल्लदेवी परम जिनभक्त थीं। उन्होंने चित्तौड़ दुर्ग के भीतर 1265 ई0 के लगभग पार्श्वनाथ का सुन्दर जिनालय बनवाया था। रानी के धर्मात्मा पुत्र वीरकेसरी रावल समरसिंह ने मुनि अमितसिंह के उपदेश से अपने राज्य में जीवहिंसा बंद करा दी थी। For Private And Personal Use Only
SR No.020788
Book TitleSwatantrata Sangram Me Jain
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKapurchand Jain, Jyoti Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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