SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथम खण्ड किया मिली हैं। प्रसिद्ध इतिहासविद् श्री रामप्रसाद चन्दा ने माडर्नरिव्यू, जून 1932 में प्रकाशित लेख में कहा है'सिन्धु घाटी से प्राप्त मोहरों पर बैठी अवस्था में अंकित देवताओं की मूर्तियां ही योग की मुद्रा में नहीं हैं किन्तु खड़ी अवस्था में अंकित मूर्तियां भी योग की कायोत्सर्ग मुद्रा को बतलाती हैं। मथुरा म्यूजियम में दूसरी शती की कायोत्सर्ग में स्थित एक ऋषभदेव जिन की मूर्ति है। इस मूर्ति की शैली से सिन्धु से प्राप्त मोहरों पर अंकित खड़ी हुई देवमूर्तियों की शैली बिल्कुल मिलती है। ...ऋषभ या वृषभ का अर्थ होता है बैल और ऋषभदेव तीर्थंकर का चिह्न बैल है। मोहर नं0 3 से 5 तक के ऊपर अंकित देवमूर्तियों के साथ बैल भी अंकित है जो ऋषभ का पूर्ण रूप हो सकता है।' इतिहासकार डॉ0 राधा कुमुद मुखर्जी ने भी श्री रामप्रसाद चन्दा के उक्त मत को मान्य किया है। ऋग्वेद में 'शिश्नदेवाः' पद आया है। इन्द्रदेव से प्रार्थना की गई है कि 'शिश्नदेव' हमारे यज्ञ में विघ्न न डालें आदि। प्रायः विद्वानों ने 'शिश्नदेवाः' का अर्थ शिश्न को देवता मानने वाले अर्थात लिंगपजक है। किन्तु स्व) पं) कैलाशचंद्र शास्त्री ने 'जैनधर्म', पृष्ठ 21 पर इसका दूसरा अर्थ-'शिश्नयुक्त देवता को मानने वाले अर्थात् नग्न देवताओं को पूजने वाले' भी किया है। यह अर्थ समीचीन जान पड़ता है। इन सभी तथ्यों से स्पष्ट है कि वैदिक व सिन्धु घाटी युग में ऋषभदेव की पूजा होती थी। यह सब लिखने का आशय यह है कि ऋषभदेव वेदोल्लिखित होने के साथ ही वेद पूर्व भी हैं और वे ही भारतीय साहित्य-विद्या-कला-राजनीति के प्रथम उपदेष्टा हैं, उन्होंने ही राज्य-व्यवस्था का बड़ा सफल सूत्रपात किया था। उन्होंने विभिन्न जनपद, ग्राम, खेट, कर्वट तथा साम, दान, दण्ड, भेद आदि नीतियों की स्थापना की थी। धर्म के अनुसार मनुष्य जाति एक है, अतः किसी प्रकार की उच्चता-नीचता का प्रश्न ही नहीं, मात्र वृत्ति या आजीविका को व्यवस्थित रूप देने के लिए ऋषभदेव ने क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीन वर्णों की व्यवस्था की थी। ब्राह्मण वर्ण की स्थापना आगे चलकर चक्रवर्ती भरत ने की। यह सारी व्यवस्था कर्म से ही थी। ऋषभदेव ने असि (तलवार), मसि (लेखनकला), कृषि (खेती), वाणिज्य (व्यापार) विद्या (लिपि व अंक ज्ञान) और शिल्प (विभिन्न कलायें) इन छह कर्मों का उपदेश देकर मनुष्य को कर्म करने की प्रेरणा दी थी। यहीं से मानव जीवन में राज्य, समाज, धर्म और अर्थ संस्थाओं का वैधानिक विकास तीव्रता से हुआ। इन सबका ध्येय समाज को सुसंस्कृत और सुख-सम्पन्न बनाना था। विश्व की मूल लिपि ब्राह्मी ऋषभदेव का मानव समाज को जो अवदान है उसमें लिपि और अंक का ज्ञान प्रमुख है। 'तिलोयपण्णत्ति', 'महापुराण' आदि महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों में उल्लेख है कि ऋषभदेव के सौ पुत्र तथा ब्राह्मी और सुन्दरी दो कन्यायें थीं। एक समय ब्राह्मी उनकी दाहिनी ओर और सुन्दरी बायीं ओर बैठी थी। ऋषभदेव ने ब्राह्मी को वर्णमाला का बोध कराया, अत: लिपि बायों से दायीं ओर लिखी जाती है। सुन्दरी को उन्होंने अंक विद्या सिखायी, अत: अंक दायों से बायीं ओर इकाई, दहाई... के रूप में लिखे जाते हैं। बाह्मी को सर्वप्रथम लिपि का ज्ञान देने के कारण विश्व की मूल लिपि ब्राह्मी कहलाती है। भरतादि पुत्रों को उन्होंने नाट्यशास्त्र आदि विषयों की शिक्षा दी थी। (विस्तृत अध्ययन के लिए महापुराण देखें)। For Private And Personal Use Only
SR No.020788
Book TitleSwatantrata Sangram Me Jain
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKapurchand Jain, Jyoti Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy