SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 549
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૫૮ सूरिथ साहू साहू वा, जैवं सन्नं णिवेस - सूत्रकृताङ्गसूत्रे । अस्थि साहू साहू वा, एवं सेन्नं पिवेसे ॥२७॥ छाया नास्ति साधुरसाधु नैवं संज्ञा निवेशयेत् । अस्ति साधुरसाधु एवं संज्ञां निवेशयेत् ||२७|| अन्वयार्थ (गस्थि) नास्ति न विद्यते (साहू) साधु (असावा) असा. पुत्रौ नास्ति (णेत्रं सम्नं णिषेमर ) एवम् - ईदृशीं संज्ञा - बुद्धिन निषेशयेद-म ऐसा कहा गया है। जो जीव कर्मों के अधीन हैं वे अनेक स्थानों का अपने कर्मोदय के अनुसार अनुभव करते हैं, किन्तु निष्कर्म जीव का स्थान तो लोक का अग्रभाग ही है ||२६|| 'गरि साह असाहू वा' इस्थादि । शब्दार्थ - स्त्रि साहू नास्ति साधुः' न कोई साधु है, 'बा असाहू - वा असाधुः' अथवा न कोई असाधु है 'णेवं स नं निवेस एनैव संज्ञा निवेशयेत्' इस प्रकार की बुद्धि धारण करनी उचित नहीं है, अर्थात् संपूर्ण चारित्र गुण का अभाव होने से कोई साधु नहीं है और जब कोई साधु ही नहीं है, तो उसके प्रतिपक्ष असाधु की भी सत्ता नही है ऐसा समझना भ्रम पूर्ण है किन्तु 'अस्थि साहू साहू वा -अस्ति साधुरसाधु 'व' माधु है और असाधु भी है 'एवं सन्नं निवेसए एवं संज्ञां निवेशयेत्' ऐसी ही समझ धारण करनी चाहिए ॥२७॥ अन्वयार्थ -- न कोई साधु है, न असाधु है, इस प्रकार की बुद्धि ઉર્ધ્વ ગતિ પ્રાપ્ત થાય છે. તેમ કહેવામાં આવ્યું છે. જે જીવ કર્મોને આધીન છે, તેએ અનેક સ્થાનાને પેાતાના કર્માદય પ્રમાણે અનુભવ કરે પરંતુ નિષ્ક જીવનું સ્થાન તા લેકના અગ્રભાગ જ છે. રા ' णत्थि साहू साहू वा' त्याहि For Private And Personal Use Only शद्वार्थ -- 'जत्थि साहू - नास्ति साधुः । साधु नथी, 'वा असाहूवी अथवा सधु नथी. 'णेवं सन्नं निवॆसए - नैव' संज्ञां मिषेश ચૈત્' આ પ્રમાણેની બુદ્ધિ ધારણ કરવી ચેપગ્ય નથી. અર્થાત્ સંપૂર્ણ ચારિત્ર કુંણના અભાવ હાવાથી કોઇ સાધુ નથી, અને જયારે કાઈ સા જ નથી તા તેના પ્રતિપક્ષરૂપ અસાધુની સત્તા પણ નથી. એમ સમજવું. ભ્રમમૂલક 9. परंतु 'अस्थि साहू साहू वा अस्ति साधुरसाधुत्र' साधु छे, भने असाधु पालु छे, 'एव वन्नं निवेखए- एवं संज्ञां निवेशयेत्' मा प्रभाषेनी ४ सभજણ રાખવી જોઇએ. રા - અન્વયા”-–કોઈ સાધુ નથી તેમ કોઈ અસાધુ નથી. આવા પ્રકારની
SR No.020781
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages797
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy