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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ५ आचारश्रुतनिरूपणम् ___ अन्वयार्थ:-(गस्थि सिद्धी णियं ठाणं) सिद्धिः-सकलकर्मक्षयरूपा जीवस्य निजं स्वकीयं स्थानम्-ईपस्याग्भारारूपं नास्ति-न विद्यते (णेवं सन्नं णिवेसए) पूर्वोक्तं स्थान नास्तीत्येवं रूपां संज्ञा-बुद्धिं न निवेशयेत्-न कुर्यात् किन्तु-अस्थि सिद्धी नियं ठाणं' अस्ति-विद्यते एव सिद्धि जीवस्य निजं स्थानम्-ईषत्मार भारारूपम् (एवं सन्नं पिवेसए) एवम् ईसी संज्ञां निवेशयेत्-कुदिति ॥२६॥ - टीका-'सिद्धी णियं ठाणं णत्यि' सिद्धि जीवस्य निजम्-स्वीयं स्थान मास्ति । एवं सन्न ण णिवेसए' एवं संज्ञा-बुद्धि न निवेशयेत्-न कुर्यात् । अपितु-'सिद्धी णिय ठाणं अस्थि सिद्धिरेव जीवस्य नैज-स्वामाविक स्थानमस्ति । 'एवं सन्नं णिवेसए' एवम्-ईदृशी संज्ञा-बुद्धिं निश्चयं निवेशयेत् । यथा-बद्धस्य जीवस्य किञ्चित्स्थानं भवति, तथा मुक्तस्यापि जीवसस्य केनचित्स्थानेन भाव्यम्, तत्तु स्थानं लोकोप्रभाग एवं । तदुक्तम्-'कर्मविषमुक्तस्योर्ध्वगतिः' इति । कर्मतन्त्रपरतन्त्रोऽस्वतन्त्रो जोवस्तत्स्थानमनुभवति, कमरहितो जीवः स्त्रीय लोकाग्रं स्थानमेति ॥२६॥ ____ अन्वयार्थ--सिद्धि-जीव का अपना कोई स्थान नहीं है अर्थात् ईषत्प्रारभारा नामक पृथ्वी नहीं है, इस प्रकार का विचार नहीं करना चाहिए। किन्तु मिद्धि-जीव का अपना स्थान है, इसी प्रकार का विचार करना चाहिए ॥२६॥ टीकार्थ--सिद्धि-जीव का निजी स्थान नहीं है, इस प्रकार की संज्ञा (समझ) धारण करना ठीक नहीं है, किन्तु सिद्धि ही जीव का अपना स्थान है, इस प्रकार की संज्ञा धारण करना चाहिए। जैसे बद्ध जीव का कोई स्थान होता है, उसी प्रकार मुक्त जीवराशि का भी कोई स्थान अवश्य होना चाहिए । वह स्थान लोक का अग्रभाग ही है । जो 'जीव कर्मों से पूर्णरूप से मुक्त हो जाता है, उसे ऊर्ध्वगति की प्राप्ति होती है।' भ-क्या--सिद्धि, नु' पोतार्नु । स्थान नथी. अर्थात् षत्माભારા નામની પૃથ્વી નથી. આ પ્રકારને વિચાર કરવો ન જોઈએ. પરંતુ સિદ્ધિ એ જીવનું પોતાનું સ્થાન છે. એ પ્રકારનો વિચાર કરવો જોઈએ .રા - ટીકાર્થ–-સિદ્ધિ જીવનું નિજસ્થાન નથી, આ પ્રમાણેની સમજણ ધારણ કરવી ઠીક નથી પરંતુ સિદ્ધી જ જીવનું નિજસ્થાન છે, આ પ્રમાણેની બુદ્ધી ધારણ કરવી જોઈએ. જેમ બદ્ધ જીવનું કેઈ સ્થાન હોય છે, એ જ પ્રમાણે મુક્ત જીવરાશીનું પણ કોઈ સ્થાન અવશ્ય હોવું જ જોઈએ. તે સ્થાન લેકને અગ્રભાગ જ છે. જે જીવ કમેથી પૂર્ણ રીતે મુક્ત થઈ જાય છે, તેને स० ६८ For Private And Personal Use Only
SR No.020781
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages797
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size15 MB
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