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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - ७८ . सूत्रकृताङ्गसूत्र मूलम्-गिह दीवमपासंता, पुरिसादाणिया नेरा। ते वीरा बंधणुम्मुक्का, नावखंति जीवियं ॥३४॥ छाया--गृहे दीपमपश्यन्तः पुरुषादानीया नराः। ते वीरा बन्धनोन्मुक्ता नाऽवकांक्षन्ति जीवितम् ॥३४॥ अन्वयार्थः--(गिहे दीवमयासंता) गृहे-गृहवासे दीपं-भावदीपं श्रुतज्ञानलाभात्मकम् अपश्यन्त:-अमाप्नुवन्तः (नरा) नराः (पुरिसादाणिया) पुरुषादानीयाः-पुरुषाणा-मुमुक्षूणाम् आदानीया:-आश्रयणीया भवन्ति (बंधणम्मुक्का ते वीरा) बन्धनोन्मुक्ताः बन्धनेन सबाह्याभ्यन्तरेण पुत्रकलादिस्नेहेन प्राबल्येन मुक्ता बन्धनोन्मुक्ताः सन्तः (जीवियं) जीवितं-जीवनम् (नावकखंति) नावाक्षन्ति नाभिलपन्तीति ॥३४॥ 'गिहे दीवमपासंता' इत्यादि। शब्दार्थ--'गिहे दीवमपासंता-गृहे दीपमपश्यन्तः' गृहवासमें ज्ञान प्राप्ति का लाभ न देखते हुए 'पुरिसा दाणियानरा-पुराषोदानीयाः नराः' मुमुक्षु पुरुषों के आश्रय लेने योग्य होते हैं 'वंधणुम्मुक्का ते वीरा-बंधनोन्मुक्ताः ते वीराः' बन्धन से मुक्त वे वीरपुरुष 'जीवियं-जीवितं' असं. यमी जीवनकी 'नावकंखंति-नावकांक्षन्ति':इच्छा भी नहीं करते हैं ॥३४॥ ___ अन्वयार्थ-गृह में दीपक न देखने वाले अर्थात् गृहस्थावस्था में श्रुतज्ञान का लाभ नहीं हो सकता, ऐसा सोचने वाले जो दीक्षा अंगी. कार करके उत्कृष्ट गुणों को प्राप्त करते हैं, वे पुरुषों के आश्रयणीय बन जाते हैं बाह्य और आन्तरिक बन्धकों से अथवा पुत्र कलत्र आदि 'गिहे दीवमपासंता' त्यादि हा---'गिहे दीवमपासंदा-गृहे दीपमपश्यन्तः' यसमा सान पसिना are न याथी 'पुरिसादाणिया नरा- पुरुषादानीयाः नराः' भुभुक्षु५३षांनी माश्रय सेवा योग्य गाय छे. 'बंधणुम्मुक्का ते. वीरा-बंधनोन्मुक्ताः ते वीः' ५ धनथी भुत सवा ते वा२ ५३१ 'जीविय-जीवित" मसयम पनने 'नावकखंति-नावकांक्षन्ति' ६२७ ५५ ७२तां नयी ॥३४॥ અને યાર્થ-ઘરમાં દીવાને પ્રકાશ ન જોનારાઓ અથત ગૃહસ્થ અવસ્થામાં શ્રત જ્ઞાનને લાભ પ્રાપ્ત કરી શકાતું નથી એવા પ્રકારનો વિચાર કરવાવાળાઓ દીક્ષાને સ્વીકાર કરીને જે શ્રેષ્ઠ ગુણોને પ્રાપ્ત કરે છે, તેઓ પુરૂષના આશ્રય સ્થાન બની જાય છે. બાહ્ય અને આંતરિક એટલે કે બહારના અને અંદરના . For Private And Personal Use Only
SR No.020780
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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