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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी दीका प्र. श्रु. अ. ९ धर्मस्वरूपनिरूपणम् वा, ततः 'सत्थादाणाई' शस्त्रादानानि, शस्त्राणीव शस्त्राणि, यथा-शरादि जीवो. पतापकं तयाऽप्रत्यभाषगादिकमपि, अतएव आदानानि-आदीयन्ते अष्टकारकाणि कर्माणि एभिरिश्यादानानि कोपादानकारणानि 'लोगंसि' लोके-इहलोके संपारे 'तं तदेतत्सर्वमसत्यप्रमुखम् , 'विज्ज' विद्वान् 'परिजाणिया' परिजानीयात्, ज्ञपरिक्षया ज्ञात्वा-प्रत्याख्यानपरिज्ञया सर्वमपि त्यजेद, एतेषां स्वरूपं कारणं कार्य च जानन् विद्वान् परिष्ठ रेत् , इति । मृपावादादिकं सर्वमेव दुःखजनकतया शस्त्रमित्र भयानकम्-तथा-कर्मवन्धकारकं चेवि ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वा प्रत्याख्यानपरि. ज्ञया विद्वान् तत् परित्यजेदिति ॥१०॥ मूलम्-पलिउंचणं भयणं च थंडिल्स्प यणाणि य। धूणादाणाई लोंगसि, तं विजं परिजाणिया ॥११॥ छाया--पलिकुश्चनं भजनश्च स्थण्डिलोच्छ्यणानि च । धूनयाऽऽदानानि लोके तद्विधान परिजानीयात् ॥११॥ शस्त्र के समान हैं, क्योंकि जैसे-घाण (तीर) आदि जीवों को संताप देते हैं उसी प्रकार असत्यभाषण आदि भी संतापजनक होते हैं अत. एवं इनका परिहार करना उचित ही है।। असत्यभाषण आदि आदान है अर्थात् इनसे आठ प्रकार के कर्मों का बन्ध होता है । मेधावी पुरुष इन असत्य भादिके स्वरूप, कारण एवं कार्य को लोक में ज्ञपरिज्ञासे जान कर प्रत्याख्यान परिज्ञा से त्याग दे। अभिप्राय यह है कि यह सब मृषावाद आदि लोक में दुःखजनक होने से शस्त्र के समान भयानक हैं और कर्मबन्ध के कारण हैं। मेधावी पुरुष ज्ञपरिज्ञा से उसे जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा से इनका त्याग करदे॥१०॥ 'पलिउंचणं' इत्यादि। शब्दार्थ--'पलिउचणं-पलिकुश्चनम्' माया 'भयणं च-भजन' કેમકે જેમ બાણ (તાર) વિગેરે જેને સંતાપ દે છે. એ જ પ્રમાણે અસત્ય ભાષણ આદિપણ દુઃખ પહેંચાડે છે. તેથી તેને ત્યાગ કરે તેજ ઉચિત છે, કહેવાને ભાવ એ છે કે આ મૃષાવાદ વિગેરે લોકમાં દુખ કારક હોવાથી શસ્ત્રની જેમ ભયંકર છે. અને કર્મબંધના કારણ રૂપ છે. મેધાવી પુરૂષ જ્ઞ પરિજ્ઞાથી તેને જાણીને પ્રત્યાખ્યાન પરિણાથી તેને ત્યાગ કરે. ૧૦ 'पलिचणं' sanle शहा -'पलिउंचणं-पलिकुञ्चनम्' भाया 'भयणं च-भजनंच' भने: १ सु०४ For Private And Personal Use Only
SR No.020780
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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