SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 25
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टोका प्र. श्रु. अ. ३ उ. १ भिक्षापरीषहनिरूपणम् १३ अन्धयार्थः-(दत्तेपणा) दत्तैपणा अन्यप्रदत्त वस्तुनोऽन्वेषणम् (दुक वा) दुःखम् (सया) सदा जीवनपर्यन्तं साधूनां भवति तथा (जायणा) यांचा (दुप्पणोलिया) दुअगोद्या याश्चापरीषहः अल्पसत्वेन दुःखेन प्रणोद्यते सह्य ते (पुढो जणा) पृथग्जना पाकृतपुरुषाः (इच्चाहंसु) इत्येप्रमाहुः कथयंति, (कम्मत्ता) कर्माताः स्वकृतपूर्व कर्म गः फल मोक्तारः (दुब्नगा चे) दुभंगा भाग्यहीना इ इति ॥६॥ टीका--'दत्तेसणा' दत्तषगा 'दुक्खा' दुःख ननिका 'सा' सदा-आजीवन साधूनां भवति 'जायणा' याश्चा 'दुप्पणोलिलया' दुष्मणोद्या-दुःखेन सोढव्या अब सूत्रकार भिक्षा परीषह के विषय में कथन करते हैं'सया दत्तेसणा' इत्यादि। शब्दार्थ-'दत्तेसणा-दत्तषणा' अन्य के द्वारा दी गई वस्तु को ही अन्वेषण करना 'दुक्खा-दुःख' यह दुःख 'सया-सदा' जीवन पर्यन्त साधु को रहता है 'जायणा-यांचा' भिक्षाकी याचना करने का कष्ट 'दप्पणोल्लिया-दुष्प्रणोद्या' असह्य होता है 'पुढो जणा-पृथक जनाः' प्राकृतपुरुष अर्थात् साधारणलोक 'इच्चाहंसु-एवमाहुः' ऐसा कहते हैं कि 'कम्मत्ता-कार्ताः' ये लोक अपने पूर्वकृत पापकर्म का फल भोग रहे हैं 'दुभगाचेव-दुर्भगाश्चैव' तथा ये लोग भाग्यहीन हैं ॥६॥ ___अन्वयार्थ-साधुओं को दत्तषणा का अर्थात् दूसरो के द्वारा प्रदत्त वस्तु को ही ग्रहण करने का दुःख सदेव सहन करना पडता है। याचना परीषह भी दुस्सह होता है। साधारण जन साधुओं को देख कर कहते हैं, ये अपने कर्मों से पीडित हैं भाग्य हीन है' ॥६॥ टीकार्थ-साधुओं को जीवनपर्यन्त दत्तषगा का दुःख भोगना पडता है अर्थात् अदत्तादान के कारण सदैव दूसरों की दी हुई वस्तु से ही 4५५ त साधुने २७ छे. 'जायणा-यांचा' भिक्षानी यायना ३२वार्नु ४४ दुप्पणोल्लिया-दुष्प्रणोद्या' असय थाय छे. 'पुढो जणा-पृथक् जनाः' पाहत ५३५ मर्थात साधारण सो 'इच्चा हंसु-एवमाहुः' मे ४ ? 'कम्मत्ता- कर्माताः' माया पोताना पूर्वत ५।५:भर्नु ३ की २ छ. 'दुब्भगाचेव -दुर्भगाश्चैव' तथा मासा माग्यहीन छ. ॥६॥ સૂત્રાર્થ–સાધુઓએ અન્યના દ્વારા પ્રદત્ત વસ્તુને ગ્રહણ કરવાનું દુઃખ સદા સહન કરવું પડે છે, તે કારણે યાચના પરીવહ પણ દુર્સીડ ગણાય છે. સામાન્ય લોકો તે સાધુઓને જોઈને કહે છે – આ લેક તેમનાં કર્મોથી પીડિત છે, ભાગ્યહીન છે. પાર્. દા. ટીકાથ–સાધુઓ જીવનપર્યત દતષણુનું દુઃખ સહન કરવું પડે છે, કારણ કે તેઓ અદત્તાદાનના ત્યાગી હોવાને કારણે તેમને અન્યના દ્વારા For Private And Personal Use Only
SR No.020779
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages729
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy