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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २ ) धर्म से संतानवृद्धि। बालाण रवो तुरियाण, हिंसणं बंदिविन्दनिग्घोसो। गुरुओ मंथासदो, धन्नाण घरे समुच्छलइ ॥ ५ ॥ वरबालामुहकमलं, बालमुहं धूलिधूसरच्छायं । सामिमुहं सुपसन्नं, तिनि वि सग्गं विसेसति ॥ ६ ॥ प्रस्थान समय यह मंगलिक के लीए होते है । कन्यागोपूर्णकुंभं दधिमधुकुसुमं पावकं दीप्यमानं । यानं वा गोप्रयुक्तं करिनृपतिरथः थं) शंखवाद्यध्वनिवर्वा । उत्क्षिप्ता चैव भूमी जलचरमिथुनं सिद्धमन्नं यतिर्वा । वेश्यास्त्रीमद्यमांसं जनयति सततं मंगलं प्रस्थितानां ॥७॥ श्रमणस्तुरगो राजा, मयूरः कुञ्जरो वृषः । प्रस्थाने वा प्रवेशे वा, सर्वसिद्धिकरा मताः ॥८॥ भोजराजा के लिये मंत्रीयों का विलाप । अद्य धारा निराधारा, निरालम्बा सरस्वती । पण्डिता रण्डिताः सर्वे, त्वयि भोज दिवं गते ॥ ६ ॥ दया रहित को दीक्षादि नक्कामी है । न सा दीक्षा न सा भिक्षा, न तदानं न तत्तपः। न तद्ध्यानं न तन्मौनं, दया यत्र न विद्यते ॥ १० ॥ योगीश्रेष्ठ स्थूलीभद्र अथवा सब से बड़ा दानी, मानी, भोगी और योगी यह है। For Private And Personal Use Only
SR No.020763
Book TitleSubhashit Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhsagar
PublisherJinduttsuri Gyanbhandar
Publication Year1934
Total Pages228
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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