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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १३ ) नवकारइक्कमक्खर, पावं फेडेइ सत्तअइराणं । पन्नासं च पयाणं, सागरपणसमग्गेण ॥ ६८ ॥ पचेन्द्रिय को सेवन करनेवाला कैसे नहीं नष्ट होता ? कुरंग-मातंग-पतंग-भंगा, मीना हताः पंचभिरेव पंच । एकाप्रमादी स कथं न हन्यात् , यः सेवते पंचभिरेव पंचा६९। संसार विरक्तता। पूमा पञ्चक्खाणं, पडिकमणं पोसहो परुवयारो। पंच पयारा जस्स उ, न पयारो तस्स संसारे ॥ ७० ॥ शौचादि काकादि में नहीं होते है । काके शौचं, घृतकारेषु सत्यं क्लीबे धैर्य, मद्यपे तत्त्वचिंता । सर्पक्षान्तिः,स्त्रीषु कामोपशांती,राजा मित्रं केन दृष्टं श्रुतं वा ।७१॥ जिनपूजा का महत्त्व । सायरजलस्स पारं, पारं जाणामि तारगाणं वा।। गोयम जिणवरपूत्रा,-फलस्स पारं न जाणामि ॥ ७२ ॥ चैत्यवंदन दक्षिण भाग से करना । अर्हतो दक्षिणे भागे, दीपस्य विनिवेशनं । ध्यानं तु दक्षिणे भागे, चैत्यानां वन्दनं तथा ॥७३॥ गुरु का महत्त्व । विदलयति कुबोधं बोधयत्यागमार्थ, सुगतिकुगतिमार्गों पुण्यपापे व्यनक्ति । For Private And Personal Use Only
SR No.020763
Book TitleSubhashit Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhsagar
PublisherJinduttsuri Gyanbhandar
Publication Year1934
Total Pages228
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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