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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्था सानुवाद ॥ ४३२ ॥ www.kobatirth.org नागकुमार देवो समुद्रनी शिखाना अग्रभागना पाणीने धारण करे हे अर्थात् तेथी उपर वृद्धि पामता जलने अटकावे छे. लवणसमुद्रमां चारे दिशाए बेलंधर देवोनां रहेवाना चार आवासो छे. yoवाइ अणुक्कमसो, गोधुभदगभास संखद्गसीमा । गोथुभ सिवए संखे मणोसिले नागरायाणो ॥१३८॥ अणुवेलंधरवासा, लवणे विदिसासु संठिया चउरो । कक्कोडे विज्जुप्पभे, केलासऽरुणप्पभे चैव ॥१३९॥ कक्कोडय कदमए, केलासऽरुणप्पभे य रायाणो । बायालीससहस्से, गंतुं उदहिंमि सव्वेवि ॥ १४०॥ उक्तार्थ छे, मूलानुवादमा अर्थ आवी गयेल छे. चत्तारि जोयणसए, तीसे कोसं च उग्गया भूमिं । सत्तरस जोयणसए, इगवीसे ऊसिया सव्वे ॥१४९॥ धा गोस्तूप विगेरे आठ पर्वतो, चार सो श्रीश योजन अने एक कोश भूमिमां ऊंडा के अने प्रत्येक सतर सो एकवीश योजन ऊंचा छे. 'पभासिंस 'ति० सौम्यपणुं होवाथी चंद्रोनुं प्रभासन - प्रकाश कधुं अने तीक्ष्ण किरण होवाथी सूर्योनुं तो 'तवइंस - ति० तापन (तप) कां. चंद्रोनी चार संख्या होवाथी तेना परिवारभूत नक्षत्र विगेरेनी चार संख्या ज छे माटे कहे छे केचार कृतिका छे ते नक्षत्रनी अपेक्षाए छे, परंतु तारानी अपेक्षाए चार नथी. एम ज अठ्यावीश नक्षत्रो पण चार चार जाणवा. For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir *********XXXXXXXXXXXXXXXXXX******** ४ स्थान काध्ययने उद्देशः २ द्वीपद्वाराणि अन्तरद्वीपा पातालक लशाः धातकी विष्कंभादि ० ३०३ ३०६ ॥ ४३२ ॥
SR No.020755
Book TitleSthanang Sutra Ppart 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevchandra Maharaj
PublisherMundra Ashtkoti Bruhadpakshiya Sangh
Publication Year1943
Total Pages450
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size20 MB
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