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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ५२ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दिगम्बर- तीर्थकर भगवान् समवसरण में सिंहासन पर बैठते नहीं हैं अधर रहते हैं । (त्रि, प्र. पूर्व ४ गा० ८९३) जैन - सिंहासनस्थ मिह भव्य शिखण्डिनस्त्वाम् || २३ ॥ ( आ० सिद्धसेनसूरि कृत कल्याणमंदिरस्तोत्र ) इस पाठसे तीर्थकरों का सिंहासन पर बैठना सिद्ध है । दिगम्बर-आ० यतिवृषभ फरमाते हैं कि केवली तीर्थंकरका शरीर केवलज्ञान प्राप्त होने पर पृथ्वी से पांच हजार धनुष ऊपर चला जाता है, माने वे ५००० धनुष ऊंचे विहार करते हैं । (त्रि. प्र. पत्र ४ गा० ७० ०१) आ० श्रुतसागरजी बताते हैं कि तीर्थकर भगवान् एकेक योजन ऊंचे और आधेर योजन की केसरा वाले कमल पर विहार करते हैं और ये कमल भी कम नहीं हैं। पं० लालाराम शास्त्रीके लेखानुसार ये १५ या आठों दिशा आदिके हिसाब से २२५ होते हैं । तब तो तीर्थकर का आकाशगमन मानना ठीक है। इससे यह आराम रहता है कि तीर्थकरो को समवसरण की पैरी चढने का कष्ट नहीं होगा तीर्थकर भगवान सीधे समवसरण के सिंहासन पर आकर बैठ जायेंगे । जैन- ये सब अतिशयोक्ति ही हैं। योजनकी ऊंचाई वाले कमल, कमलोकी संख्याका मतभेद, उंचाई का भी फर्क और उनको फिरनेका क्षेत्र, इन सब बातोंको सोचने पर यहाँ अतिशयोक्ति मानना यही ठीक मार्ग है । इस अतिशयोक्ति की जड़ संभयतः " जातविकोशाम्बुजमृदुहासा" है, विकोश के स्थान पर "विक्रोश" माने विशिष्ट कोश समजकर अपनी बुद्धिसे योजनकी कल्पना कर ली है मगर सब दिगम्बर शास्त्र उसके पक्ष में नहीं हैं। तीर्थकर भगवान बिहार करें वैसे सीडी भी चढ़ें, इसमें विशेषता क्या है ? वीर्यान्तराय कर्मके क्षय होने से चलने में चढने में या बोलने में तीर्थकर भगवान् कहीं थकते नहीं है और न कष्ट होता है अतः चढनेके कटका For Private And Personal Use Only
SR No.020729
Book TitleShvetambar Digamber Part 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshanvijay
PublisherMafatlal Manekchand Shah
Publication Year1943
Total Pages290
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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