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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दिगम्बर-तीर्थकर भगवानको ४ घातिकर्मके क्षय होने से १० अतिशय उत्पन्न होते हैं । यें है-११ चारसो कोश अकाल न पड़े १२ आकाशमं चले १३ प्राणि वध न होवे १४ कवलाहारका अभाष १, उपसर्ग का अभाव १६ चतुर्मुखता १७ सर्व विद्यामें प्रभुत्व १८ प्रतिविम्ब न पडे १९ आँखों में मेशोन्मेशका अभाव (आंखोकी टीमकार न लगे) २० नख केश बड़े नहीं। ये अतिशय तीर्थकरको ही होते है, केवली को नहीं होते हैं अत एव ये तीर्थकरके अतिशय गिने जाते हैं और इनके जरिये तीर्थकर भगवान की विशेषता कही जाती है। बात भी ठीक है कि केवली भगवान को ४०० कोश तक सुभीक्षता, चतुर्मुखता वगैरह अतिशय नहीं होते हैं। ___आ० पूज्यपाद फरमाते हैं कि-"स्वातिशयगुणा भगवतो (श्लो० ३८)" पं. लालाराम जैन शास्त्री साफ २ बताते हैं कि ये दश अतिशय भगवान तीर्थंकर परमदेवके घातिया कमी के नाश होने पर होते हैं (पृ. १४७) जैन-यह तयशुदा बात है कि-ये अतिशय तीर्थकरके हैं, केवलोके नहीं हैं । अतः केवली भगवानके लिये कवलाहार और उपसर्गका अभाव बताना भी भ्रम हो है। जो कि वह वस्तु केवली अधिकार में सप्रमाण स्पष्ट कर दी गई है। अस्तु ___ अब रही तीर्थकरदेव की बात । तीर्थकरोंके इन अतिशयों में कई अतिशय सिर्फ कल्पनारूप ही है क्योंकि इनके खिलाफ में दिगम्बर शास्त्र प्रमाण मिलते हैं। दिगम्बर-मानलिया जाय कि-सुभीक्षताके लिये कुछ कम क्षेत्र होगा किन्तु तीर्थंकरदेव आकाशमे विहार करते हैं, यह तो ठीक है। जैन-गत केवलीअधिकारमें केवली भगवान् भूमि पर विहार करते है और शिलापट्ट पर बैठते हैं यह उल्लेख कर दिया गया है वास्तव में तीर्थंकर भगवानके लिये भी वैसा ही है। वे आसन पर बैंठते हैं और भूमि पर पैर धर कर विहार करते हैं फरक इतना ही है कि उनके पैरके नीचे देव कमलोंकी रचना करते है। For Private And Personal Use Only
SR No.020729
Book TitleShvetambar Digamber Part 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshanvijay
PublisherMafatlal Manekchand Shah
Publication Year1943
Total Pages290
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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