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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [६] । मल १४ हैं जिनमें कन्द, मूल, बीज, फल, कण और कुण्ड (भीतर से अपक्व चावल ) ये भी सब मल हैं किन्तु ये अप्रासुक नहीं हैं याने इनके सद्भाव में सचित्त निक्षिप्त, सचित्त पिहित या सचित मिश्र का दोष नहीं है। (पं० भाशाधर कृत अनगोर धर्मामृत अ० ५ श्लो० ३९) २ कन्दादिषट्कंत्यागाई, इत्यन्नाद्विभजेन्मुनिः न शक्यते विभक्तुं चेत्, त्यज्यतां तर्हि भोजनम् । टीका-कन्दादिषट्कं मुनि पृथक् कुर्यात माने ये सचित्त नहीं है अतः इनको दूर करके दिगम्बर मुनि श्राहार करें। (पं० प्राशावर कृत अनगार धर्मामृत भ. ५ श्लो० ४१) ३ मूलाचार पिण्ड विशुद्धि अधिकार गा० ६५ की टीका में भी उपरोक्त विधान आया है विशेष जानकारी करनी हो तो ता०१६८।१९३६ इसी० के खंडेलवाल हितेच्छु अंक २१ में प्रकाशित ब्यावर निवासी दि० ७० महेन्द्रसिंह न्यायतीर्थ का “वनस्पति आदि पर जैन सिद्धान्त" शीर्षक लेख पढना चाहिये। उपर के ऐतिहासिक प्रमाणों से सिद्ध है कि-दिगम्बर श्वेताइन दोनों का उद्-गम एक ही स्थान से है परन्तु दोनों में शुरु से ही सापेक्ष भेद है जो भेद अाज अनेक शाखा प्रशाखाओं से प्रति विस्तृत हो उठा है। दिगम्बर-यह भेद प्राचार्य भद्रबाहु स्वामी के बाद हुश्रा है दिगम्बर विद्वानों ने इस भेदका समय वि० सं० १३६ लीखा है। (भा० देवसेन कृत दर्शनसार, और भाव संग्रह गा० १३७. पं० नेमिचन्द्रजी कृत सूर्यप्रकाश श्लो० १४७ पृ० १७९, भट्टारक इन्द्रनन्दि कृत नीतिसार पलो. ९ ६० गजाधरलालजी सम्पादित "समप्रसार प्रामृत" प्रस्तावना) . For Private And Personal Use Only
SR No.020729
Book TitleShvetambar Digamber Part 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshanvijay
PublisherMafatlal Manekchand Shah
Publication Year1943
Total Pages290
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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