SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 176
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ૨૭ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अयोगिजिननाथानां देवानां नारकात्मनां । आहारक मनुष्याणां एकाक्षाणां वपुंषि च ॥ १२९ ॥ यानि कार्मणकायानि व्रजतां परजन्मनि । षण्णां सर्वशरीरिणां नास्ति संहननं क्वचित् ॥ १३०॥ (सिद्धांतसारप्रदीप ) अर्थात् सयोगी केवली को वज्रऋषभनाराच संहनन है मगर उनके शरीर में सातों धातु नहीं रहती हैं, केवलज्ञान होते ही उनके शरीर की सातों धातु विनष्ट हो जाती हैं, इस हालत में वह शरीर पर मौदारिक माना जाता है । भूलना नहीं चाहिये कि - रस, खून, मांस, मेद, हड्डी, मज्जा और शुक्र ये सात धातु हैं तथा वात, पित्त, कफ, नस, स्नायु, चमडी और पेट ये उपधातु हैं । जैन - दिगम्बर शास्त्रों में ही केवली के शरीर में सात धातुएँ होने का विधान है । देखिये - (१) केवली भगवान्को औदारिक आदि ४२ प्रकृतिओं का उदय है, उनमें से कई प्रकृति सातों धातुके लिये है । जैसा कि - दिगम्बर ग्रन्थके अनुसार पर्याप्तकर्म, तैजसके सहयोग से आहार ग्रहण - पाचन, शरीर व इन्द्रियोंका निर्माण करता है ! निर्माणकर्म, अंग उपांग और धातुओंकी व्यवस्था करता है । (मूला० प० १२ गा० १९६ टीका) पंचेन्द्रिय औदारिक शरीर और औदारिक अंगोपांग, ये पंचेन्द्रिय योग्य नस- हड्डी आदि युक्त, शरीर बना रखते हैं वज्रऋषभ नाराच संहनन रस हड्डी और ग्रन्थिओं को वज्र के समान बना रखता है । वर्णादि चतुष्क खून मांस और चमड़ी में ५ रंग ५ रस २ गंध और ८ स्पर्श को जमा रखता है । उपघातकर्म शरीर में नुकसान करने वाले अंगोपांग और मांस ग्रन्थी आदि को बनाता है । दीणि" स्थिर अस्थिर नामकर्म “थिरजुम्मस्स थिराथिर रस रुहिरा(गो० क० गा० ८३) शरीर की सातों धातु और उपधातुओं को स्थिर और अस्थिर रखते हैं ! (गोम्मटसार, मूलाचार परि० १२ गा० १९६ टीका पृ० ३११ ) For Private And Personal Use Only
SR No.020729
Book TitleShvetambar Digamber Part 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshanvijay
PublisherMafatlal Manekchand Shah
Publication Year1943
Total Pages290
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy