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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपाल- अर्थ-उतने कुमरके पीछे रही भई कुमरकी माता और स्त्रीको देखके रूप्पसुंदरी रानी मममें विचारती भई क्या भाषाटीकाविचारा सो कहते हैं ॥ २६७ ॥ सहितम्. ही एसा का लहुया, वहुया दीसेइ मज्झ पुत्तिसमा। जावनिउणं निरिक्खइ, उवलक्खइ ताव तं मयणं ६८ द्र अर्थ-हि यह विचारमें है रानी विचारती है मेरी पुत्रीके सदृश यह छोटी बहू कौन दीखती है ऐसा विचारके है|जितने अच्छी तरहसे देखे उतने उसको मदनसुंदरी है ऐसा जाने ॥ २६८ ॥ नूणं मयणा एसा, लग्गा एयस्स कस्सवि नरस्स । पुट्ठीइ कुट्ठियं तं, मुत्तूणं चत्तसइमग्गा ॥ २६९ ॥ 8 अर्थ-तब उसके अनन्तर इस प्रकारसे विचारे निश्चय यह मदनसुंदरी मेरी पुत्री उस कुष्टी पुरुषको छोड़के सतीके 8 दमार्गका त्याग किया है जिसने ऐसी यह कोई पुरुषके पीछे लगी है ऐसा जाना जाय है ॥२६९ ॥ मयणा जिणमयनिउणा, संभाविजइन एरिसंतीए।भवनाडयंमि अहवा, ही ही किंकिंन संभवइ ॥७॥ ___ अर्थ-मदनसुंदरी जिनमतमें निपुण वर्ते है उससे ऐसा अकार्यका करना नहीं संभवे अथवा ही ही इति अतिदूखेदे भव नाटकमें जीवोंके क्या २ नहीं संभवे अपि तु सर्व संभवे है ॥ २७० ॥ |विहियं कुले कलंकं, आणीयं दूसणं च जिणधम्मे। जीए तीइ सुयाए, न मुयाए तारिसं दुक्खं ॥२७॥8॥३६॥ का अर्थ-जिसने कुलमें कलंक लगाया जिन धर्मपर दूषण प्राप्त किया वह पुत्री मरजाती तो वैसा दुःख नहीं होता ॥७१॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020724
Book TitleShripal Charitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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