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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपाल- अर्थ-तथापि राजा अपने क्रोधसे नहीं निवर्त होवे है कैसा है राजा अत्यन्त कठोर है मन जिसका मदनसुंदरीभी भाषाटीकाचरितम् || अपने सत्वसे धैर्यसे नहीं चले कैसी है मदनसुंदरी तत्त्वकी जाननेवाली हैं ॥ ४५ ॥ 15 सहितम्. दातं वेसरिमारोविय, जा चलिओ उंवरो नियय ठाणं। ता भणइ नयरलोओ, अहो अजुत्तं अजुत्तंति ॥४६॥ ___ अर्थ-तदनंतर उम्बर राणा उस कुमरीको खचरनीपर चढ़ाके वहांसे अपने स्थान चला उस समय नगरके लोग इस प्रकारसे बोले अहो यह कार्य अयुक्त भया अयुक्त भया ॥ ४६ ॥ एगे भणंति घिद्धी, रायाणं जेणिमंकयमजुत्तं । अन्ने भणंति धिद्धी, एयंअइदुविणीयंति ॥४७॥8 | अर्थ-उस अवसर कई लोग कहे राजाको धिक्कार होवो धिक्कार होवो जिस कारणसे राजाने यह अयुक्तकार्य हूँ किया और लोग ऐसे बोले इस दुर्विनीत कन्याको धिक्कार होवो जिसने पिताके बचन नहीं अंगीकार किए ॥४७॥ केवि निंदंति जणणिं, तीए निंदंति केवि उवज्झायं । केवि निंदंति दिवं, जिणधम्म केवि निंदंति॥४८॥ | अर्थ-और उस वक्तमें कईक लोग कन्याकी माताकी निंदा करे इसकी माताने सिखावन अच्छी नहीं दियी और कईक लोग उपाध्यायकी निंदा करे अच्छी पढ़ाई नहीं कितने लोग कहें इसका भाग्यही ऐसा है और कितनेक जैन धर्मकी निंदा करें जैनी कर्महीं कुमानते हैं ॥४८॥ ॥१९॥ तहवि हु वियसियवयणा, मयणा तेणुंवरेण सह जंती। नकुणइ मणेविसायं, सम्मं धम्मं वियाणंती ॥४९॥ KAU*XSAAN For Private and Personal Use Only
SR No.020724
Book TitleShripal Charitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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