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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् ॥ १६२ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ – ज्ञानपदकी विराधना के फलमें माषंतुष साधुका दृष्टांत है आराधनाके फलमें शीलवती सतीका उदाहरण है ॥ १३११ ॥ चारित्तपयं तह भावओवि, आराहियं सिवभवंमि । जे णं जंबुकुमारो, जाओ कयजणचमुक्कारो ॥१३१२ ॥ अर्थ — शिवकुमारके भवमें भावसे चारित्र पाला था उस आराधनसे जम्बूकुमर भया कैसा जम्बूकुमर लोकोंको किया है आश्चर्य जिसने ऐसा ॥ १३१२ ॥ वीरमइए तह कहवि, तवपयमाराहियं सुरतरूव । जह दमयंतीइ भवे फलियं तं तारिसफलेहिं ॥ १३१३ ॥ अर्थ - वीरमती नामकी राजाकी रानीने कोई प्रकारसे तपपदका आराधन किया तिलक तपस्या करके अष्टापद तीर्थपर चौबीस तीर्थकरोंको तिलक चढ़ाया इसके प्रभावसे दमयंती नलराजाकी पटरानीके भवमें वह तप कल्पवृक्षके सदृश फलोंसे फला ॥ १३१३ ॥ किं बहुणा मगहेसर, एयाणपयाणभत्तिभावेणं । तं आगमेसि होहिसि, तित्थयरो नत्थि संदेहो ॥ १३१४ ॥ अर्थ- हे मगधेश्वर जादा कहने करके क्या इन नवपदोंका भक्तिभाव करके तैं आगामि भवमें तीर्थंकर होगा इसमें संदेह नहीं है ॥ १३१४ ॥ तम्हा एयाई पयाई, चेव जिणसासणस्स सव्वस्सं । नाऊणं भो भविया, आरहह सुद्धभावेण ॥ १३१५ ॥ For Private and Personal Use Only भाषाटीकासहितम्. ॥ १६२ ॥
SR No.020724
Book TitleShripal Charitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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