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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पणती सगुणगिराए, जे य विबोहं कुणंति भव्वाणं । महिपीढे विहरंता, ते अरिहंते पणिवयामि ॥ १२२६ ॥ अर्थ - पैंतीस गुण जिसमें ऐसी वाणी करके भव्योंको बोध देते है ऐसे पृथ्वीपर विचरते हुए अरिहंतोंको मैं नमस्कार करूं ।। १२२६ ॥ अरिहंता वा सामन्नकेवला, अकयकयसमुग्धाया । सेलेसीकरणेणं, होऊणमजोगिकेवलिणो ॥ १२२७॥ अर्थ-तीर्थंकर अथवा सामान्य केवली नहीं किया अथवा किया केवली समुद्धात जिन्होंने ऐसे योगीन्द्र शैलेसी करण करके आत्मप्रदेशोंका घन किया जिन्होंने ऐसे अयोगी केवली होके ॥ १२२७ ॥ जे दुचरमंमि समए, दुसयरिपयडीओ तेरस य चरमे । खविऊण सिवं पत्ता, ते सिद्धा दिंतु मे सिद्धिं १२२८ अर्थ — दो चरम समय आयुक्षय के पहले समय में बहत्तर ७२ प्रकृति अघाती कर्मोंकी उत्तरप्रकृति क्षय करके और चरम समयमें तेरह १३ प्रकृति खपाके मोक्ष प्राप्त भया वह सिद्ध मेरेको सिद्धि देओ ।। १२२८ ॥ चरमंगतिभागेणा, वगाहणा जे य एगसमयंमि । संपत्ता लोगग्गं, ते सिद्धा दिंतु मे सिद्धिं ॥ १२२९ ॥ अर्थ — त्रिभागऊन चर्मशरीरकी अवगाहना जिन्होंकी ऐसे एकसमयमें लोकाग्र प्राप्त भया वह सिद्ध मेरेको सिद्धि देओ ।। १२२९ ॥ पुवपओग असंगा, बंधणच्छेया सहावओ वावि । जेसिं उड्डा हु गई, ते सिद्धा दिंतु मे सिद्धिं ॥१२३०॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020724
Book TitleShripal Charitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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