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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपालचरितम् ॥१५१॥ अर्थ-जिके तीनज्ञान मति श्रुत अवधिकरके सम्पूर्ण भोगफल कर्मको क्षीण जानके चारित्र अंगीकार करे है उन भाषाटीका सहितम्. | अरिहंतोको मैं नमस्कार करूं ॥ १२२२ ॥ उवउत्ताअपमत्ता, सियझाणा खवगसेणिहयमोहा। पावंति केवलंजे, ते अरिहंते पणिवयामि ॥१२२३॥ । अर्थ-जिके उपयोगयुक्त और प्रमाद रहित शुक्लध्यान ध्याया जिन्होंने इसी कारणसे क्षपकश्रेणीकरके क्षयकिया है मोहका जिन्होंने ऐसे केवलज्ञान पावे है उन अरिहंतोंको मैं नमस्कार करूं ॥ १२२३ ॥ 8|कम्मक्खइया तह सुरकया य, जेसिंच अइसया हुंति। एगारसुगुणवीसं, ते अरिहंते पणिवयामि ॥१२२४॥ ___ अर्थ-और जिन्होंके कर्मक्षयसे उत्पन्न भया ११ अतिशय होवे है तथा देवोंका किया हुआ १९ अतिशय होवे है और ४ अतिशय जन्मसे एवं ३४ अतिशयसहित उन अरिहंतोंको मैं नमस्कार करूं ॥ १२२४ ॥ जे अट्ठपाडिहारेहि, सोहिया सेविया सुरिंदेहिं । विहरंति सया कालं, ते अरिहंते पणिवयामि ॥१२२५॥ BI अर्थ-जिके अशोकवृक्षादि आठ ८ प्रातिहार्यों करके शोभित (अशोकवृक्षः सुरपुष्पवृष्टिर्दिव्यध्वनिः चामरमासनं , दाच । भामंडलं दुंदुभिरातपत्रं सत् प्रातिहार्याणि जिनेश्वराणां ॥१॥) अशोकवृक्षः १ पुष्पवृष्टिः २ दिव्यध्वनिः ३ सिंहा-15॥१५॥ सन ४ चामर ५ भामंडल ६ दुंदुभिः ७ छत्र ३॥८ देवेन्द्रो करके सेवित नित्य विहार करे है उन अरिहंतोंको में नमस्कार करूं हूं ॥ १२२५ ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020724
Book TitleShripal Charitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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