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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् ॥ १४ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ — बाद सभाके लोग कहे हे स्वामिन्! यह बाला मुग्धमती भोली है क्या जाने आप संतुष्ट भए वांछित फल देनेसे कल्पवृक्षके जैसे हो और क्रोधातुर भए यमराजके तुल्य हो शीघ्र निग्रह करनेसे ॥ ३ ॥ मयणा भणेइ धिद्धी, धणलवमित्तत्थिणो इमे सवे । जाणंतावि हु अलियं, मुहप्पियं चैव जंपंति ॥४॥ अर्थ - यह सभाके लोगोंका बचन सुनके मदनसुंदरी बोली इन सभाके लोगोंको धिक्कार होवो धनका लवमात्रकी अभिलाषा करते हुए जानते भी मिथ्या वचन मुखप्रिय बोलते हैं ॥ ४ ॥ जइ ताय ! तुह पसाया, सेवयलोया हवंति सद्देवि । सुहिया ता समसेवा, निरया किं दुक्खिया एगे ॥५॥ अर्थ- हे पिताजी! जो आपके प्रसाद से सर्व सेवक लोग सुखी होते हैं तब तुल्य सेवामें तत्पर ऐसे कितनेक सेवक लोग दुःखी कैसे सब सुखीही होना चाहिये ॥ ५ ॥ तम्हा जे तुम्हाणं, रुच्चइ सो ताय मज्झ होउ वरो । जइ अस्थि मज्झ पुन्नं, ता होही निग्गुणोवि गुणी ॥६॥ अर्थ - तिस कारणसे हे पिताजी ! जो आपको रुचे वह मेरा वरहोओ जो मेरे पुण्य है तो आपका दियाहुआ वर निर्गुणी भी गुणवान् होगा ॥ ६ ॥ | जइ पुण पुन्नविहीणा, ताय ! अहं ताव सुंदरोवि वरो । होही असुंदरुच्चिय, नूणं मह कम्मदोसेणं ॥ ७ ॥ For Private and Personal Use Only भाषाटीकासहितम्. ॥ १४ ॥
SR No.020724
Book TitleShripal Charitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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