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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दंसंता एयमायारं तत्तमायरियावि हु । सिक्खायंता इमं सीसे, तत्तमुझावयाविय ॥ १०९५ ॥ अर्थ - इस धर्मरूप आचारको पालते हुए और उपदेश देते हुए आचार्य भी तत्व है तथा शिष्योंको यह धर्म सिखाते हुए उपाध्याय भी तत्व कहे जावें हैं ॥ १०९५ ॥ साहयंता इमं सम्मं तत्तरूवा सुसाहुणो । एयस्स सहाणेणं, सुतत्तं दंसणंपि हु ॥ १०९६ ॥ अर्थ - इस धर्मको सम्यक् प्रकारसे साधता हुआ सुसाधु तत्वरूप है इस धर्मके श्रद्धानसे जो सम्यक दर्शन है वह भी शोभन तत्व है ।। १०९६ ॥ एयरसेवावबोहेणं, तत्तं नाणंपि निच्छयं । एयस्साराहणारूवं तत्तं चारित्तमेव य ॥ १०९७ ॥ अर्थ - इस धर्मका अवबोध सम्यक्ज्ञान वस्तु निर्णयात्मक ज्ञानभी तत्व कहा जावे और इस धर्मका आराधनारूप चारित्र भी तत्व है ॥ १०९७ ॥ इत्तो जा निज्जरातीए, रूवं तत्तं तवोवि य । एवमेयाई सवाई, पयाइं तत्तमुत्तमं ॥ १०९८ ॥ अर्थ — इस चारित्रसे जो कर्मोंकी निर्जरा वह सरूप जिसका ऐसा तपभी तत्व है इस प्रकारसे यह नवपद उत्तम सर्वोत्कृष्ट तत्व हैं ।। १०९८ ॥ तत्तो नवपई एसा, तत्तभूया विसेसओ । सवेहिं भव्वसत्तेहिं, नेया झेया य निच्चसो ॥ १०९९ ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020724
Book TitleShripal Charitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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