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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatrth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir 18] अर्थ-वह रूपादिक सर्व पानेसेभी सद्गुरुका संयोग दुर्गम है जिस कारणसे सर्व क्षेत्रोंमें सदा साधु नहीं रहतेहैं १०७९!! महंतेणं च पुन्नेणं, जाए-वि गुरुसंगमे । आलस्साईहिं रुद्धाणं, दुल्लहं गुरुदंसणं ॥ १०८०॥ I अर्थ-कदा महान् पुण्योदयसे सद्गुरुका संयोग होनेसेभी आलस्यादिक त्रयोदश तस्करोंने रोके हुए प्राणियोंको गुरूका दर्शन होना दुर्लभ है वह तेरे काठिया यह है आलस्स मोह वन्नाथं भाकोहा पमाय किवणत्ता भयसोगा अन्ताणा 81 | वक्खे वक्रु तुहलार आलस १ मोह २ वर्ण ३ मान ४ क्रोध ५ प्रमाद ६ कृपणपना ७ भय ८ शोक ९ अज्ञान १० व्याक्षेप ४|११ कूतूहल १२ क्रीड़ा १३ ये १३ काठिया गुरूका दर्शन नहीं करने देवे ॥ १०८०॥ कहं कहंपि जीवाणं, जाएवि गुरुदंसणे । बुग्गाहियाण धुत्तेहि, दुल्लहं पज्जु-वासणं ॥ १०८१॥ 81 अर्थ-जीवोंके कोई प्रकारसे गुरूका दर्शन होनेसेभी धूोंने चित्तमें भ्रांति करदी होवे ऐसे जीवोंसे गुरुकी सेवा टू करनी दुर्लभ होवे है ॥ १०८१ ॥ गुरुपासेवि पत्ताणं, दुल्लहा आगमस्सुई । जं निहाविगहाओय, दुजयाओ सयाइवि ॥ १०८२॥ | अर्थ-गुरूके पासमें जानेसेभी सिद्धान्तका सुनना दुर्लभ है जिस कारणसे निद्रा विकथा सदा दुर्जय है इसलिए सुनना मुश्किल है ॥ १०८२॥ संपत्ताए सुईएवि, तत्तबुद्धी सुदुल्लहा । जं सिंगारकहाईसु, सावहाणमणो जणो ॥ १०८३ ॥ ESCALASHUSHUSHUS *** For Private and Personal Use Only
SR No.020724
Book TitleShripal Charitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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