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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ-निश्चय में वृद्ध हूं तौभी परद्रोह करनेमें तत्पर महापापी हूं यह श्रीपाल बालक हैं तथापि परोपकारही एक धर्म वही प्रधान जिसके ऐसा है कहां यह कहां मैं ।। १०४६ ॥ गुत्तदोहेण कित्ती, नासई नीईय रायदोहेण । वालदोहेण सुगई हहा मए तं तिगंपि कथं ॥ १०४७ ॥ अर्थ — और बिचार करे गोत्रद्रोहसे कीर्ति नष्ट होवे है और राजद्रोहसे नीति न्याय मार्ग नष्ट होवे है तथा बालद्रोहसे सुगति देव गत्यादिक नष्ट होवे है ह इति खेदे मैंने यह तीनों किया ॥ १०४७ ॥ कत्थत्थि मझठाणं, नरयं मूत्तूण पावचरियस्स । ता पावघायणत्थं, पवज्जं संपविजामि ॥ १०४८ ॥ अर्थ - ऐसा पाप आचरण करनेवाला मेरेको नरक सिवाय और कौनसा ठिकाना है इसलिए इस पापका विनाश करनेके वास्ते जैनी दीक्षा अंगीकार करूं ॥। १०४८ ॥ एवं च तस्स चिंतंतयस्स, सुहभाव - भावियमणस्स । पावरासीहिं भिन्नं, दिन्नं विवरं च कम्मेहिं १०४९ अर्थ - अनन्तरोक्त प्रकारसे विचारता इसी कारणसे शुभ परिणामसे भावित मन जिसका ऐसा अजितसेन राजाका पापसमूह विदीर्ण हुआ और कर्मराजने विवर दिया । १०४९ ॥ तो सरियपुवजम्मेण, तेण सिरिअजियसेणभूवइणा, पडिवन्नं चारितं, सुदेवयादत्तवेसेणं ॥ १०५० ॥ अर्थ - तदनंतर अजितसेन राजाको जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न भया अर्थात् पूर्व भवजाना ऐसा अजितसेन राजाने For Private and Personal Use Only
SR No.020724
Book TitleShripal Charitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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