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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् 11 2011 www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ- क्या विचारे सो कहते हैं अहो इति आश्चर्ये मेरे पुण्यका उदय है कि जिस कारणसे वह जिसका स्वरूप कहा वह उपद्रव टल गया और यह सर्वलक्ष्मी सुखसे मेरे सफल भई है अब मेरे विना इस लक्ष्मीका कौन स्वामी है ॥ ६८३ ॥ जइ रमणीओ, ऐयाओ कहवि मन्नंति महकलत्तत्तं । ताऽहं होमि कयत्थो, इंदाओ वा समब्भहिओ ६८४ अर्थ- जो ये दोनों स्त्रियों कोई प्रकारसे मेरी स्त्रियां हो जावे तो मैं कृतार्थ होउं अथवा इन्द्रसे भी अधिक हो जाऊं ॥ ६८४ ॥ इय चिंतिऊण तेणं, जा दुईमुहेण पत्थिया ताओ । ता ताहिं कुवियाहिं, दुई निभच्छिया वाढं ॥ ६८५॥ अर्थ - ऐसा विचार के धवल सेठने जितने दूतीके मुखसे उन स्त्रियोंकी प्रार्थना कराई उतने क्रोधातुर हुई दोनों मदना दूतीकी अत्यर्थ निर्भर्त्सना करी अर्थात् तर्जना करी ॥ ६८५ ॥ तहविहु सो काम पिसायाहिठ्ठिओ, नट्ठ निम्मलविविओ । तेणज्झवसाएणं, खर्णपि पावेइ नो सुक्खं ६८६ अर्थ - तथापि निश्चय कामरूप पिशाच दुष्टव्यन्तरसे आश्रित इसी कारणसे नष्ट भया है निर्मल विवेक जिसका ऐसा धवलसेठ उस अध्यवसायसे नहीं निवृत्त होवे और क्षणमात्रभी सुख नहीं पावे ॥ ६८६ ॥ अन्नदिने सो नारीवेसं, काऊण कामगहगहिलो । मयणाणं आवासं, सयं पविट्टो सुपाविट्ठो ॥ ६८७ ॥ For Private and Personal Use Only भापाटीकासहितम्. ॥ ८७ ॥
SR No.020724
Book TitleShripal Charitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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