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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ - तदनंतर वे तीनों सरल बुद्धिवाले पुरुष धवलसे कहे हे धवल कुबुद्धि देनेवालेको ऐसा फल भया सो तुमने देखाही है ।। ६७८ ॥ एयाणं च सईणं, सरणपभावेण जहवि जीवंतो । छुट्टोसि तहवि पावं, पुणो करंतो लहसिऽणत्थं ६७९ अर्थ — और इन सतियोंकें शरणेके प्रभावसे यद्यपि जो तैं जीता बचा है तथापि और पापकर्ता हुआ अनर्थ पावेगा ॥ ६७९ ॥ जो पररमणीरमणि, - कलालसो होइ रागगहगहिओ । जइ सो बुच्चइ पुरिसो, ता के खरकुक्कुरा अन्ने ६८० अर्थ - जो पुरुष पर स्त्रियोंके साथ रमनेमें एक लालसा तृष्णाजिसकी ऐसा कामरागग्रहसे ग्रहीत नाम ग्रहण किया जिसने ऐसा मनुष्य रूपसे गर्दभ कुत्तेके सदृश कहा जावे ॥ ६८० ॥ द्धि द्धी ताण नराणं, जे पररमणीण रूवमित्तेण । खुहिया हणंति सबं, कुलजससग्गापवग्गसुहं ॥ ६८१ ॥ अर्थ- उन मनुष्योंको धिक्कार होवो धिक्कार होवो जे पर स्त्रियोंके रूपमात्रसे चल चित्त भया सर्वकुल वंश स्वर्ग अपवर्ग के सुखका विनाश करे हैं कुल उंचा गोत्र यश कीर्ति स्वर्ग सुख प्रसिद्ध है अपवर्ग सुख मोक्ष सुख ये न होवे ॥६८१ ॥ जलहिंमि वहंताणं, पोयाणं जाव कइवयदिणाई । जायाइं तओ पुणरवि, धवलो चिंतेइ हिययंमि ॥६८२॥ अर्थ - समुद्र में जहाज चलता थकां कितनेक दिन भए तब और भी धवलसेठ मनमें विचारे ॥ ६८२ ॥ अत्थि अहो मह पुन्नो, -दयंत्ति जं सो उवद्दवो टलिओ । फलिया एसा य सिरी, सव्वावि सुहेण मज्झेव ६८३ | For Private and Personal Use Only
SR No.020724
Book TitleShripal Charitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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