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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् ॥ ७२ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एएसु नवपएसु, अवयरियं सासणस्स सवस्सं । ता एयाई पयाई, आराहह परमभत्तीए ॥ ५६३ ॥ अर्थ - यह नवपदों में जिनशासनका सरवस्व याने सर्वसार अवतीर्ण है तिस कारणसें अहो भव्यो तुम यह पद परम भक्तिसे आराधन करो अर्थात् सेवो ॥ ५६३ ॥ जहा जियंतरंगारिजणे सुनाणे, सुपाडिहेराइसयप्पहाणे, । संदेहसंदोहरयं हरंते, झाएह निच्चंपि जिणेरिहंते ॥ ५६४ ॥ अर्थ - जीता अंतरंगशत्रु कामक्रोधादि जिन्होंने और प्रधान ज्ञान जिन्होंका तथा शोभन अशोक वृक्षादि प्रातिहार्य अतिशयों करके प्रधान ऐसे और संशयोंका जो समूह वही रज धूलि उसको दूर करनेवाले ऐसे अरहन्तोंको निरंतर ध्यावो ।। ५६४ ।। दुट्ठट्ठकम्मावरणप्पमुक्के, अनंतनाणाइसिरीचउक्के । समग्गलो गग्गपयप्पसिद्धे, झाएह निच्चंपि ममि सिद्धे ॥ ५६५ ॥ अर्थ - दुष्ट आठकर्मही आवरणों करके प्रकर्षपने करके मुक्त अनंत ज्ञानादिलक्ष्मीचतुष्क है जिन्होंके अनंतज्ञान १ अनंतदर्शन २ अनंतसुख ३ अनंत अकर्णवीर्य ४ इन्हों करके युक्त तथा सम्पूर्णलोकका ऊपरका स्थान वहां प्रसिद्ध | सिद्धपना प्राप्तभया ऐसे सिद्धोंको तुम निरंतर मनमे ध्यावो ॥ ५६५ ॥ For Private and Personal Use Only भाषाटीकासहितम्. ॥ ७२ ॥
SR No.020724
Book TitleShripal Charitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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