SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 138
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ-तदनंतर परिवारके लोग कहें हे स्वामिन् ऐसी आज्ञा मतदेओ जिस कारणसे सूर्य विना क्या कोई कमलोका वन विकस्वरमान करे है अपितु नहीं करे ॥ ५३७ ।। ससिमंडलं विणा किं, कमुयवणुल्लासणं कुणइ कोवि, । किंच वसंतेण विणा, वणराई कोवि मंडेइ ५३८ | अर्थ-तथा चन्द्रमाके मंडलविना क्या कोई कुमुदोंके वनको विकस्वरमान करसके है अपितु कोई नहीं करसके द और वसंतऋतु विना वनराजिको कौन प्रफुल्लित करसके किंतु कोई नहीं करसके ॥५३८॥ | किं सहकारेण विणा, उग्घाडइ कोवि कोइलाकंठं, । ता देव तं दुवारं, तुमं विणा केण उग्घडइ ५३९ अर्थ-तथा आमेकी मांजरविना कोयलका कंठ कौन उघाडसके है किंतु कोई नहीं उघाडसके तिसकारणसे यह जिन ६ मंदिरका दरवजा आपविना कौन उघाड़े अर्थात् कोई नहीं उघाड़े ॥ ५३९॥ है तो कुमरो तुरयाई, मोइत्ता विहिय उत्तरासंगो, कयनिस्सीहीसदो, सीहदुवारंमि पविसेइ ॥ ५४०॥ | अर्थ-तदनंतर, कुमर घोड़ेसे उतरके कियाहै उत्तरासन जिसने ऐसा उच्चारणकिया है निसहीका शब्द जिसने ऐसा हाचैत्यका सिंहद्वार नाम प्रथमद्वारमें प्रवेशकरे ॥ ५४०॥ जा जाइ मंडवतो, कुमरो उप्फुल्लनयणमुहकमलो, ता कयकिंकाररवं, अररिजुयं झत्ति उग्घडियं ॥५४१॥ SHIRASHISEASESORAS For Private and Personal Use Only
SR No.020724
Book TitleShripal Charitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy