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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपाल-| अर्थ-उसके अनन्तर वह राजपुत्री बहुत संताप जिसके ऐसीभई अपने आत्माकी निंदाकरे किया पाप जिसने ऐसी भाषाटीकाचरितम् | अशुभ भाववाली में हूं ॥ ५०५॥ सहितम्. है जेण मए पावाए, पमायलग्गाइ मंदभग्गाए । संकरकयाइ पूयाइ, दंसणं खणमवि नलद्धं ॥ ५०६ ॥ __ अर्थ-जिस कारणकरके मैं पापनी प्रमादमें लगीभई और मन्दभागिनीने संकरभाव शुभाशुभ रूप मिश्रभावसे | पूजाकरी जिससे प्रभुका दर्शन क्षणमात्रभी नहीं पाया ॥ ५०६ ॥ ही ही अहं अहन्ना, अन्नाणवसेण कम्मदोसेण । आसायणंपिकाहं, किंपिधुवं वंचिया तेण ॥५०७॥ है। अर्थ-हही इति खेदे खेदसे कहती है मैं अधन्य हूं अज्ञानके वशसे कर्मके दोषसे कोई आशातना विराधनाकरी है इस कारणसे निश्चय मैं ठगी गई हूं ॥ ५०७ ॥ एवं ममावराहं, खमसु तुमं नाह कुणसु सुपसायं । मह पुन्नविहीणाए, दीणाए दंसणं देसु॥५०८॥ है अर्थ-हे नाथ यह मेरा अपराध क्षमाकरो आप सुष्टुनाम शोभन प्रसाद नाम अनुग्रह प्रसन्नताकरो पुन्यविहीन दीन मेंहूं ऐसी मेरेको दर्शन देओ ॥ ५०८ ॥ एवं तं रुयमाणिं, दट्टणं नंदणिं भणइ राया । वच्छे (वत्थे)तुहावराहो, नत्थि इमो किंतु मह दोसो ५०९/॥६५॥ . अर्थ-इस प्रकारसे रोती भई पुत्रीको देखको राजा कहे हे वत्से यह तेरा अपराध नही है किंतु मेरा दोष है ॥५०९॥RI SAUSIASSASSIS For Private and Personal Use Only
SR No.020724
Book TitleShripal Charitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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