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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपान्व. ११ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नवनाडयाई दाइज्झयंमि, दाऊण चारुवत्थेहिं । परिहावइ परिवारं कुमरेण सहागयं सयलं ॥ ४६९ ॥ अर्थ -- पाणिग्रहण के समयमें बहूवर के देने योग्य पदार्थ देते नवनाटक देके कुमरके साथमें आयाहुआ सब परिवा रको प्रधान पटकूल रेशमी वस्त्र वगेरेह पहरावे अर्थात् देवे ॥ ४६९ ॥ एगं च महाजुंगं, वाहणरयणं च मंदिरे पत्तं । काऊण कुमरसहिओ रायावि समागओ तत्थ ॥४७०॥ अर्थ - और एक महाजुंगनामका प्रधान जहाजपात्र बंदर में प्राप्तकरके कुमर सहित राजाभी उस बंदरमें आए ॥४७० ॥ सिट्ठीवि महाजुंगं, दहुं चउसट्ठिक्वयसणाहं । मणिकंचणपडिपुन्नं, चिंतइ निययंमि हिययंमि ॥४७॥ अर्थ - तब धवलसे भी ६४ कूपस्तम्भों करके सहित और मणिरत्न और सोने करके भराहुआ ऐसा महाजुंग नामका जहाजको देखके अपने मनमें विचार करे ॥ ४७१ ॥ अहह किमेयं जायं, जं एसो मज्झ सेवगसमाणो । सामित्तमिमं पत्तो, भाडयमित्तं न मे दाही ||४७२ ॥ अर्थ-क्या विचारे सो कहते हैं अहह इतिखेदे यह क्या होगया जिस कारणसे यह श्रीपाल मेरे सेवकके समान था इस वक्तमें स्वामी होगया अब मेरेको भाड़ाभी नहीं देवेगा ॥ ४७२ ॥ इय चिंतिय सो जायइ, कुमरं गयमासभाडयं सोवि । दावेइ दसगुणं तं, ही केरिसमंतरं तेसिं ॥ ४७३॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020724
Book TitleShripal Charitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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