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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir AAAAAAAAALOG पुरिसुत्तम ? महनयरं, नियचरणेहिं तुमं पवित्तेहिं । अम्हेवि जेण तुम्ह, नियभत्तिं किंपि दंसेमो॥ ४६१॥ Pा अर्थ हे पुरुषोत्तम तुम अपने चरणोंसे मेरा नगर पवित्र करो जिस कारणसे हमभी तुह्मारी भक्ति करें अपनी भक्ति दिखावें ॥ ४६१॥ कुमरो दक्खिन्ननिही, जा मन्नइ ता पुणो धवलसीढ़ी। वारेइ घणं कुमरं, सवत्थवि संकिया पावा ४६२ ___ अर्थ-दाक्षिण्य परचित्तानुकूल उसका निधान कुमर जितने राजाके वचन अंगीकार करे उतने धवलसेठ कुमरको बहुत मना करे हे कुमर शत्रुके घरमें सर्वथा नहीं जाना इत्यादि वचनोंसे, किस कारणसें सो कहते है जिसकारणसे टू दुष्ट प्राणियोंको सर्व ठिकाने शंका रहती है उत्तम निःशंक रहते हैं ॥ ४६२ ॥ वारंतस्सवि धवलस्स, तस्स कुमरो समत्थपरिवारो। पत्तो महकालपुरं, तोरणमंचाइकयसोहं ॥४६३॥ | अर्थ-धवलसेठ मनाकरतेभी अर्थात् धवलसेठका वचन नहीं मानके सर्वपरिवार सहित कुमर महाकाल राजाके टूनगरमें पहुंचा कैसा नगर तोरण मंचादिकसे करी है शोभा जिसकी ऐसा ॥ ४६३ ॥ हे महकालो तं कुमर, भत्तीइ नियासणंमि ठावित्ता। पभणेइ इमं रज, महपाणावि ह तहायत्ता ॥४६॥ । अर्थ-अथ महाकाल राजाभी कुमरको भक्तिसे अपने सिंहासनपर बैठाके विशेष आदरके साथ कहे यह राज्य 18| तुम्हारे आधीन है जादा कहनेकर क्या निश्चय मेरे प्राणभी तुमारे आधीन हैं ॥ ४६४ ॥ 564542**********9649 स, तस्स कुत धवलसेठका वचन जिसकी ऐसा ॥ ४१३ महपाणावि हु तहात यह राज्य For Private and Personal Use Only
SR No.020724
Book TitleShripal Charitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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