SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 10
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ - जो अशुभक्रिया पापव्यापारोंका त्याग और शुभक्रिया निरवद्यव्यापारोंमें अप्रमाद प्रमाद नहीं करना वह चारित्र तुम पालो कैसा चारित्र उत्तम गुणों करके युक्त और कैसा निरुक्त पदभंजनसे निष्पन्न भया सो कहते हैं। चयनाम ८ कर्मका संचय रिक्त खाली होय जिससे वह चारित्र कहिये ॥ ३१ ॥ घणकम्म तमोभरहरण, भाणु भूयं दुवालसंगधरं । नवरमकसायतावं चरेह सम्मं तवो कम्मं ॥ ३२ ॥ अर्थ - अहो भव्यो तुम अच्छी तरहसे तप क्रिया अंगीकार करो कैसा है तप धनकर्म मजबूत ज्ञानावरणी आदि कर्मही अंधकारका समूह उसके दूर करने में सूर्यसमान और कैसा तप बारह अंगका धारनेवाला तपका १२ भेद होनेसे लोकमें १२ सूर्यरूढ़ होनेसे परंतु सूर्य ताप करनेवाला है कषायरहित तप तापरहित है ॥ ३२ ॥ एयाई नवपयाई, जिनवरधम्मंमि सारभूयाइं । कल्लाणकारणाई, विहिणा आराहियब्वाइ ॥ ३३ ॥ अर्थ - यह नव पद श्रीतीर्थंकरके कहे हुए धर्ममें सारभूत है इसी कारणसे कल्याणके करनेवाले हैं इस लिए विधिःसे तुमको आराधना योग्य है ॥ ३३ ॥ अन्नं व एएहिं नव पएहिं सिद्धं सिरि सिद्धचकमाउत्तो। आराहंतो संतो, सिरि सिरिपालुव लहइ सुहं ३४ अर्थ - और भी सुनो ये नव पदोंकर के निष्पन्न श्रीसिद्धचक्रको उपयोगयुक्त आराधता भया श्रीश्रीपालनामके राजाके जैसा मनुष्य सुख पाता है ॥ ३४ ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020724
Book TitleShripal Charitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy