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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir शय्या-सूत्र ६६ तस्स% उसका मि = मेरे लिए दुक्कडं = पाप मिच्छा = मिथ्या हो भावार्थ शयन सम्बन्धी प्रतिक्रमण करना चाहता हूँ। शयनकाल में यदि बहुत देर तक सोता रहा हूँ, अथवा बार बार बहुत देर तक सोता रहा हूँ, भयतना के साथ एक वार करवट ली हो, अथवा बार बार करवट ली हो, हाथ पैर आदि अंग अयतना से समेटे हों अथवा पसारे हों, यूका-जू आदि शुद्र जीवों को कठोर स्पर्श के द्वारा पीड़ा पहुँचाई हो बिना यतना के अथवा ज़ोर से खाँसी ली हो, अथवा शब्द किया हो, यह शय्या बढ़ी विषम तथा कठोर है-इत्यादि शय्या के दोष कहे हों; बिना यतना किए छींक एवं जंभाई ली हो, बिना प्रमार्जन किए शरीर को खुजलाया हो अथवा अन्य किसी वस्तु को छूना हो, सचित्त रज वाली वस्तु का स्पर्श किया हो [उपर शयनकालीन जागते समय के अतिचार बतलाए हैं। अब सोते समय के अतिचार कहे जाते हैं। ] स्वप्न में विवाह युद्धादि के अवलोकन से प्राकुल व्याकुलता रही हो-स्वप्न में मन भ्रान्त हुआ हो, स्वप्न में स्त्री संग किया हो, स्वप्न में स्त्री को अनुराग भरी दृष्टि से देखा हो, स्वम में मन में विकार पाया हो, स्वम दशा में रात्रि में भोजन-पान की इच्छा की हो या भोजन पान किया हो___ अर्थात् मैंने दिन में जो भी शयन-सम्बन्धी अतिचार किया हो, वह सब पाप मेरा मिथ्या = निष्फल हो। विवेचन जैन आचार शास्त्र बहुत ही सूक्ष्मतात्रों में उतरनेवाला है । साधकजीवन की सूक्ष्म से सूक्ष्म चेष्टाओं, भावनाओं एवं विकल्पों पर सावधानी तथा नियंत्रण रखना, यह महान उद्देश्य, इन सूक्ष्म चर्चाओं के पीछे रहा हुआ है । अाज का उड़ाऊ चंचल मन भले ही इनको उपहास की For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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