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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ६२ ही वेदनकाल में रहा है, उसका प्रतिक्रमण कैसे होगा ? पाठादि के शब्द व्यवहार में तो असख्य समय लग जाते हैं, तब तक तो वह कर्म', कर्म ही हो गया, आत्मा पर लगा ही न रहा । अतः वीतराग त केवलज्ञान दशा में, अशुभ योग से शुभ योग में लौटने रूप ऐर्याथिक प्रतिक्रमण, कैसे हो सकता है ? हाँ, व्यवहार रक्षा के लिए कहा जाय तो बात दूसरी है । इस पर भी विद्वानों को विचार करने की पेक्षा है, क्योंकि वे कनातीत अवस्था में हैं। अतः व्यर्थ के व्यवहार से बँधे हुए नहीं हैं । यह तो हुआ ऐक आलोचना का निदर्शन । व कुछ मूल पाठ पर विवेचन करना है । पहला प्रश्न नाम का ही है कि प्रस्तुत पाठ को ऐधिक क्यों कहते हैं ? आचार्य नाभि का समाधान है कि ईरां = ईर्ष्या, गमनमित्यर्थः । तत्प्रधानः पन्था ईर्यापथः, तत्रभवा ऐर्यापथिकी !' अर्थात् ईर्ष्या का अर्थ गमन है, गमन-प्रधान जो पथ = मार्ग, वह कहलाता है ! और ईर्यापथ में होने वाली क्रिया ऐर्यापथिकी क्रिया होती है । मार्ग में इधर-उधर श्राते-जाते जो क्रिया होती है, वह ऐर्या की कहलाती है । श्राचार्य हेमचन्द्र अपने योगशास्त्र की स्वोपज्ञवृत्ति में ईयपथ का अर्थ श्रेष्ठ आचार करते हैं, और उसमें गमनागमनादि के कारण असावधानता से जो दूषणरूप क्रिया हो जाती है, उसे ऐर्याधिकी कहते हैं - 'ईर्यापथः साध्वाचारः तत्रभवा ऐर्यापथिकी ।' अस्तु, उक्त ऐर्यापथिकी क्रिया की शुद्धि के लिए जो प्रायश्चित्तरूप-सूत्र बोला जाता है, वह भी ऐर्यानिक सूत्र कहलाता है । I प्रस्तुत सूत्र एक गम्भीर विचार हमारे समक्ष रखता है । वह यह कि किसी जीव को मार देना ही, प्राणरहित कर देना ही, हिंसा नहीं है । प्रत्युत सूक्ष्म या स्थूल जीव को किसी भी सूक्ष्म या स्थूल चेष्टा के माध्यम से, किसी भी प्रकार की सूक्ष्म या स्थूल पीड़ा पहुँचाना भी हिंसा है । आपस में टकराना, ऊपर तले इकट्ठे कर देना, धूल आदि डालना, भूमि पर मसलना, ठोकर लगाना, स्वतन्त्रगति में रुकावट श्रमण-सूत्र Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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