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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ऐपिथिक-सूत्र क्षमा माँग लेना, पाप कार्य के प्रति अन्तर्हृदय से घुणा व्यक्त करना, और उचित प्रायश्चित्त ले लेना ही आत्म-विशुद्धि का सर्वश्रेष्ठ मार्ग है। प्रस्तुत पाठ के द्वारा यही उपयुक्त प्रात्म-विशुद्धि का मार्ग बताया गया है। जिस प्रकार वस्त्र में लगा हुआ दाग क्षार तथा साबुन से धोकर साफ किया जाता है, वस्त्र को स्वच्छ तथा श्वेत कर लिया जाता है, उसी प्रकार गमनागमनादि क्रियाएँ करते समय अशुभयोग, मन की चंचलता, अज्ञानता, या अविवेक आदि के कारण से पवित्र संयम-धर्म में किसी भी तरह का कुछ भी पापमल लगा हो, किसी भी जीव को किसी भी तरह का कष्ट पहुँचाया हो, तो वह सब पाप इस पाठ के पश्चात्तापमूलक चिन्तन द्वारा साफ किया जाता है, अर्थात् ऐयापथिक अालोचना के द्वारा अपने संयम-धर्म को पुनः स्वच्छ कर लिया जाता है। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय में 'पंच प्रतिक्रमण के भाष्यकार श्रीयुत प्रभुदासजी ने लिखा है कि ऐयोपथिक क्रिया तेरहवें गुणस्थान में अरिहन्त केवलज्ञानियों को भी लगती है, अतः वे भी ऐपिथिक क्रिया से लगे कर्म को दूर करने के लिए प्रतिक्रमण करते हैं। परन्तु बहुत कुछ विचार-विमर्श करने के बाद भी यह सिद्धान्त मैं नहीं समझ सका । यह ठीक है कि तेरहवें गुणस्थान में भी ऐपिथिक क्रिया लगती है और उससे केवल सातावेदनीय कम का बन्ध होता है। वह बन्ध केवल योग-परिस्पन्दन के कारण होता है, कषाय एवं प्रमाद तो वहाँ है ही नहीं। कर्म का स्थितिबन्ध तो कषाय एवं प्रमाद के द्वारा ही होता है । अतः कषाय रहित अप्रमत्त दशा में योग-परिस्पन्द रूप ऐपिथिक क्रिया से, पहले समय में कम बँधता है, दूसरे समय में उसका वेदन होता है और तीसरे समय में उसकी निर्जरा हो जाती है । इसके बाद वह कर्मः अकम हो जाता है 18 अब विचार कीजिए कि जो कम समयमात्र * इसके लिए देखिए, 'सूत्र कृतांग २-१८-१६' For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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