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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir बोल-संग्रह ४२१ (२४) जिस प्रकार निर्वात ( वायु से रहित ) स्थान में रहा हुआ दीपक स्थिर रहता है, कंपित नहीं होता, उसी प्रकार साधु भी एकान्त स्थान में रहा हुया उपसर्ग आने पर भी शुभ ध्यान से चलायमान नहीं होता। (२५) जैसे उस्तरे के एक ओर ही धार होती है, वैसे ही साधु भी त्याग-रूप एक ही धारा वाला होता है। (२६) जैसे सर्प एक-दृष्टि होता है अर्थात् लक्ष्य पर एक टक दृष्टि जमाए रहता है, उसी प्रकार साधु भी अपने मोक्ष-रूप ध्येय के प्रति ही ध्यान रखता है, अन्यत्र नहीं । (२७) श्राकाश जैसे निरालम्ब= आधार से रहित है, उसी प्रकार साधु भी कुल, ग्राम, नगर, देश आदि के आलम्बन से रहित अनासक्त होता है। . (२८) पक्षी जैसे सब तरह से स्वतंत्र होकर विहार करता है, वैसे ही निष्परिग्रही साधु भी स्वजन आदि तथा नियतवास आदि के बन्धनों से मुक्त होकर स्वतंत्र विहार करता है । (२६) जिस प्रकार सर्प स्वयं घर नहीं बनाता, किन्तु चूहे आदि दूसरों के बनाये बिलों में जाकर निवास करता है, उसी प्रकार साधु भी स्वयं मकान नहीं बनाता, किन्तु गृहस्थों के अपने लिए बनाए गए मकानों में उनकी प्रज्ञा प्राप्त कर निवास करता है । (३०) वायु की गति जैसे प्रतिबन्ध रहित अव्याहत है, उसी प्रकार साधु भी विना किसी प्रतिबन्ध के स्वतंत्रतापूर्वक विचरण करता है। __(३१) मृत्यु के बाद परभव में जाते हुए जीव की गति में जैसे कोई रुकावट नहीं होती, उसी प्रकार स्वपर सिद्धान्त का जानकार साधु भी निःशङ्क होकर विरोधी अन्य-तीथिकों के देशों में धर्म प्रचार करता हुअा विचरता है। - [औषपातिक सूत्र ] For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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