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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २७२ श्रमण-सूत्र [यापनीय की पृच्छा ] मण दुक्कडाए = दुष्ट मन से की हुई च - और वयदुक्कडाए- दुष्ट वचन से की हुई भे= श्रापका शरीर कायदुक्कडाए = शरीर की दुश्चेष्टाओं जवणिज्जमन तथा इन्द्रियों से की हुई की पीड़ा से रहित है? कोहाए = क्रोध से की हुई [ गुरु की ओर से एवं कहने पर माणाए =मान से की हुई स्वापराधों की क्षमायाचना] मायाए =माया से की हुई खमासमणो = हे क्षमाश्रमण ! लोभाए = लोभ से की हुई देवसियं=( मैं ) दिवस सम्बन्धी सव्यकालियाए = सब काल में की वइक्कम = अपने अपराध को खामेमि = खिमाता हूँ सव्वमिच्छोक्याराए-सब प्रकार के आवस्सियाए. = चरण-करण रूप मिथ्या भावोंसे पूर्ण आवश्यक क्रिया सव्वधम्माइक्कमणाए = सब धर्मों करने में जो भी विप. क्लो उल्लंघन करने वाली रीत अनुष्ठान हुआ पासायणाए = पाशातना से हो उससे जे-जो भी पडिकमामि = निवृत्त होता हूँ मे= मैंने [ विशेष स्पष्टीकरण] अइयारो= अतिचार खमासमाणा- श्राप क्षमा श्रमण कयो= किया हो तस्स = उसका देवसियाए = दिवस सम्बन्धिनी पडिकमामि= प्रतिक्रमण करता हूँ तित्तीसन्नयराए-तेतीस में से किसी निन्दामि = उसकी निन्दा करता हूँ भी गरिहामि= विशेष निन्दा करता हूँ आसायणाए - अाशातना के द्वारा अप्पाणं-बाशातनाकारी अतीत [अाशातना के प्रकार ] श्रात्मा का जं किंचि = जिस किसी भी वोसिरामि= पूर्ण रूप से परित्याग मिच्छाए = मिथ्या भाव से की हुई करता हूँ #ck Hck tick For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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