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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir सक्षिप्त प्रतिक्रमण-सूत्र खण्डित, विराधित _ 'जं खंडियं जं विराहिथं' में जो खण्डित और विराधित शब्द आए हैं, उनका कुछ विद्वान यह अर्थ करते हैं कि-'एकदेशेन खण्डना' होती है और 'सर्व देशेन विराधना' । परन्तु यह विराधना वाला अर्थ संगत प्रतीत नहीं होता । यदि व्रत का पूर्ण रूपेण सर्वदेशेन नाश ही हो गया तो फिर प्रतिक्रमण के द्वारा शुद्धि किसकी की जाती है ? जब वस्त्र नष्ट ही हो गया तो फिर उसके धोने का क्या प्रयत्न ? वास्तविक अर्थ यह है कि-अल्पशिन खण्डना होती है और अधिकांशेन विराधना । अधिकांश का अर्थ अधिक मात्रा में नाश होना है, सींश में पूर्णतया नाश नहीं। अधिकांश में नाश होने पर भी व्रत की सत्ता बनी रहती है, एकान्ततः अभाव नहीं होता, जहाँ कि-'मूलं नास्ति कुतः शाखा' वाला न्याय लग सके। प्राचार्य हरिभद्र भी इसी विचार से सहमत हैं'विराधितं सुतरां भग्नं, न पुनरेकान्ततोऽभावापादितम् । प्रस्तुत सूत्र में 'जं खंडियं जं बिराहियं तस्स तक अतिचारों का क्रियाकाल बतलाया गया है; क्योंकि यहाँ अतिचार किस प्रकार किन व्रतों में हुए-यही बतलाया है, अभी तक उनकी शुद्धि का विधान नहीं किया । आगे चलकर 'मिच्छामि दुक्कडं' में अतिचारों का निष्ठाकाल है। निष्ठा का अर्थ है यहाँ समाप्ति, नाश, अत। हृदय के अन्तस्तल से जब अतिचारों के प्रति पश्चात्ताप कर लिया तो उनका नाश हो जाता है । यह रहस्य ध्यान में रखने योग्य है। __ जैनधर्म दिवाकर पूज्य श्री श्रात्मारामजी महाराज अपने साधु-प्रतिक्रमण में 'तस्स मिच्छामि दुक्कड' से पहले 'जो मे देवसित्रो अइयारो कत्रो' यह अंश और जोड़ते हैं; परन्तु यह अर्थ-संगति में ठीक नहीं बैठता । सूत्र के प्रारंभ में जब 'जो मे देवसिङ्गो अइयारो कत्रो' एक बार आ चुका है, तब व्यर्थ ही दूसरी बार पुनरुक्ति क्यों ? प्राचार्य हरिभद्र आदि भी यह अंश स्वीकार नहीं करते। For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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